वर्षा के अभाव में कृत्रिम रूप से खेतों तक जल पहुंचाने की क्रिया को सिंचाई कहते हैं। भारत की भौगौलिक परिस्थितियां, वर्षा इस प्रकार की है कि कृषि को सफल बनाने हेतु सिंचाई व्यवस्था आवश्यक है। भारत में मानसून वर्षा की अनिश्चितता तथा सिंचाई हेतु पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने के कारण सिंचाई का महत्व बढ़ जाता है।
भारत में सिंचाई की आवश्यकता/महत्व
मानसून वर्षा की अनिश्चितता
- भारतीय कृषि मानसूनी वर्षां पर निर्भर है तथा यह अनिश्चित होती है इससे कृषि उत्पादन प्रभावित होता है। इस अनिश्चितता के कुप्रभाव को दूर करने हेतु सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है
वर्षा का असमान वितरण
- पूर्वी भारत में 1000 सेमी तो पश्चिमी भारत में 10 सेमी से भी कम वर्षा होती है। भारत के अनेक क्षेत्रों में सामान्य मानसून से कम वर्षा होती है इस कारण भारत के लगभग 2/3 भाग पर सिंचाई की आवश्यकता होती है।
मानसून विभंगता
- वर्षा ऋतु में मानसूनी पवनें निरन्तर वर्षा नहीं करती बल्कि कुछ अंतराल पर रुक-2 कर वर्षा करती है। कभी-2 यह अंतराल काफी लम्बा हो जाता है और वर्षाकाल में भी वर्षा नहीं होती।
वर्षा ऋतु की सीमित अवधि
- यह ऋतु केवल 3-4 माह के लिए रहती है तथा शेष अवधि में कृषि हेतु सिंचाई पर निर्भर रहना पड़ता है।
वर्षा का मूसलाधार स्वरूप
- जब मूसलाधार वर्षा होती है तो मिट्टी इसे ठीक से सोख नहीं पाती और जल व्यर्थ बह जाता है । अतः मिट्टी में पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं होता और सिचाई का आवश्यकता पड़ती है ।
कुछ फसलों हेतु अधिक जल की आवश्यकता
- चावल, गन्ना आदि हेतु काफी जल की आवश्यकता होती है। इसके लिए वर्षा का जल पर्याप्त नहीं होता जिस कारण सिचाई की आवश्यकता होती है।
सिंचाई की सुविधाएं
भारत में उपलब्ध निम्न भौगौलिक परिस्थितियां है जो सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने हेतु सहायता देती है।
कोमल एवं ढीली मिट्टी
- सतलुज- गंगा मैदान की मिट्टी कोमल एवं ढीली है जिससे यहां नहरे एवं कुए आसानी से खोदे जा सकते है।
बारहमासी नदियां
- उत्तरी मैदान की नदिया हिमाच्छादित क्षेत्रों से निकलती है जिससे वर्ष भर इन नदियों में पानी बहता है। इन नदियों से नहरें निकालकर शुष्क ऋतु में भी फसलों की सिंचाई की जाती है।
समतल मैदान
- मैदानी भाग में नदियां मंद गति से बहती है जिससे नहर निकालना आसान है। समतल मैदान में कृषि भूमि भी बहुत होती है जिसके लिए बड़े पैमाने पर सिंचाई की आवश्यकता होती है।
उच्च भूमिगत जल स्तर
- मैदानी भाग में उच्च भौम जलस्तर मिलता है जिसके कारण गहरे कुए खोदने की आवश्यकता नहीं होती और कुएं खोदना ज्यादा खर्चे वाला कार्य नहीं होता। इस प्रकार से कई इलाकों में कुएं से सिचाई लाभप्रद होती है।
दक्षिणी पठार में तालाबों की व्यवस्था
- दक्षिणी पठारी भाग में भूमि पथरीली तथा उबड़-खाबड़ है । बारिश के समय इनमें वर्षा जल भर जाता है जिसके कारण ये गढ्ढे छोटे-बड़े तालाब का रूप धारण कर लेती है। यहां पर नदियां भी केवल वर्षा ऋतु में बहती है तथा यहां पर नहरे तथा कुएं खोदना संभव नहीं है। अतः यहां पर जल तालाबों में भर जाता है जिसका प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता है।
उपजाऊ भूमि
- उत्तरी विशाल मैदान उपजाऊ है तथा यहां सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर इसका इष्टतम प्रयोग संभव हुआ है। अतः यहां सिचाई सुविधा उपजाऊ मैदानी भाग होने के कारण विकसित हुआ है।
सिंचित क्षेत्र
- यद्यपि भारत के कई भागों में पर्याप्त वर्षा हो जाती है तथापि देश के बहुत से भागों में आवश्यकता से कम जल उपलब्ध होता है। अतः देश के अधिकांश भाग में सिंचाई को आवश्यकता होती हैं केरल तथा असम 2 राज्य है जहां पर्याप्त वर्षा हो जाती है शेष भागों में अन्य प्रकार की सिंचाई व्यवस्था करनी पड़ती है।