बहुमुखी प्रतिभा के धनी गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर आधुनिक भारत के महान् दार्शनिक, सांस्कृतिक विरासत के प्रतिनिधि, कवि, चित्रकार एवं शिक्षाशास्त्री, समाजवसेवी एवं विचारक थे। रविन्द्र नाथ टैगौर की विचारधारा में मौलिकता एवं नवीनता थी जिसने भारतीय शिक्षा, साहित्य एवं दर्शन को समृद्ध करने के कार्य किया। रविन्द्र नाथ टैगोर भारत के असाधारण सृजनशील कलाकार थे और उनके इन्हीं महान कार्यों के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गुरुदेव की उपाधि से सम्मानित किया गया।
रविन्द्रनाथ टैगोर की विचारधारा- विकास एवं स्रोत
उपनिषद का प्रभाव
रविन्द्र नाथ टैगौर की विचारधारा पर उपनिषदों का गहरा प्रभाव पड़ा जिससे उन्होंने जीवन की एकता और ब्रह्मा की सर्वव्यापकता का विचार ग्रहण किया। ब्रह्म की सर्वव्यापकता का प्रभाव टैगोर पर इतना गहरा था कि वह संकुचित राष्ट्रवाद में न विश्वास करते हुए विश्व के नागरिक बने ।
वैष्णव संतों का प्रभाव
वैष्ण्व संतों कवियों जैसे- जयदेव, विद्यापति, चंडीदास ने सार्वलौकिक ईश्वरीय प्रेम पर बल दिया और इसका प्रभाव टैगोर पर पड़ा जो टैगोर की रचनाओं पर परिलक्षित होता है।
विचारकों/दार्शनिकों का प्रभाव
राजा राम मोहन राय, बंकिम चन्द्र चटर्जी तथा तत्कालीन भारतीय भारत में आयी सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक बदलाव ने उनके विचारों पर प्रभाव डाला।
पाश्चात्य शिक्षा एवं चिंतन का प्रभाव
टैगोर अपने जीवन में पाश्चात्य सहित्य एवं चिंतन से प्रभावित थे और उन्होंने इस संबंध में विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति की प्रशंसा भी की है।
टैगोर- एक चिंतक
सृजनशील व्यक्तित्व
रविन्द्रनाथ टैगोर एक उत्कृष्ट कोटि के सृजनशील व्यक्तित्व थे जिन्होंने समकालीन विश्व में मानव चिंतन पर अपनी विशेष छाप छोड़ी । मानव स्वतंत्रता के समर्थक टैगोर उन सभी पुरातन परम्पराओं तथा बंधनों को तोड़ने की बात करते थे जो मानवता के सौहार्दपूर्ण मार्ग में बाधक थे ।
रहस्यवादी कवि एवं चितंक
गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर एक रहस्यवादी कवि थे तथा कभी भी उन्होंने सक्रिय रूप से उन्होंने राजनीति में भाग नहीं लिया फिर भी आजीवन राजनीति और समाज पर सक्रिय चिंतन करते रहे तथा अपने विचारों एवं चिंतन से उसे प्रभावित किया। टैगोर ने अपने राजनीतिक विचारों में धर्म पालन की बात कहते थे लेकिन कट्टरपंथी विचारधारा का समर्थन नहीं किया। ईश्वर में उनकी आस्था होने के बावजूद यह मानवतावादी चिंतन से बाहर नहीं था । इस प्रकार टैगोर के मानवतावादी चिंतन में संपूर्ण विश्व समाहित था ।
सार्वजनिक संपत्ति संबंधी विचार
रविन्द्र नाथ टैगौर की विचारधारा अनुसार सार्वजनिक संपत्ति किसी की निजी संपत्ति नहीं है और यह सामाजिक हित में किए गए कार्यों का प्रतिफल है। टैगोर ने सदा ही उन नैतिक आदर्शों का पक्ष लिया जो मानव की स्वतंत्रता, न्याय और सभ्यता की रक्षा करते हैं। नैतिकता के आधार पर ही वे सामाजिक क्रांति की बात करते थे क्योंकि उनका मानना था कि निरंकुशता और साम्राज्यवादी ताकतों से निबटने हेतु नैतिकता आवश्यक है।
सामाजिक समरसता के समर्थक
रविन्द्रनाथ टैगोर के सामजिक विचार में प्रेम एवं भाईचारा को विशेष महत्व दिया गया है। वे समाज में नैतिकतायुक्त तथा आपसी समन्वय पर आधारित समाज का समर्थन करते हैं। टैगोर का मानना था कि सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज में असमानता का कोई स्थान नहीं है और इस संबंध में उनके द्वारा अस्पृश्यता का घोर विरोध किया जाता है। इसी क्रम में टैगोर जमींदारों से आशा करते थे कि वे किसानों, रैयतों के हितों की रक्षा करें क्योंकि उनका मानना था कि रचनात्मक कार्य ही मानव कल्याण का एक मार्ग है ।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थक
भारतीय स्वतंत्रता के संदर्भ में टैगोर ने औपनिवैशिक शासन का सदा ही विरोध किया। उनका मानना था कि अंग्रेजों में मानवतावादी दृष्टिकोण की कमी है और इस कारण से शासक ओर शासितों के मध्य असमानता की गहरी खाई थी। विश्व शांति और अहिंसा के समर्थक टैगोर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देखते थे क्योंकि वे मानते थे कि जीवन की अनिवार्य आवश्यकता विश्व शांति है और इस हेतु यह आवश्यक है कि प्रत्येक राष्ट्र इस दिशा में अपने-अपने स्तर से प्रयास करें।
राष्ट्रवाद एवं देशभक्ति
रवीन्द्र नाथ टैगोर मानवता को राष्ट्रीयता से ऊपर रखते हैं उनका मानना है कि राष्ट्र मानव से ऊपर नहीं है तथा मानवतावाद देशभक्ति से ऊपर है। टैगोर का मानना था कि कि देशभक्ति बाहरी विचारों से जुड़ने की आजादी से रोकने के साथ साथ दूसरे देशों की जनता के दुख दर्द को समझने की स्वतंत्रता भी सीमित कर देती है। वह अपने लेखनी में भी राष्ट्रवाद को लेकर आलोचनात्मक नजरिया रखते थे ।
इसी क्रम में टैगोर उग्र राष्ट्रवाद को अस्वीकारते थे क्योंकि उनका मानना था कि उग्र राष्ट्रीयता से साम्राज्यवाद को पोषण मिलता है और इससे पैदा हुआ साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक बनता है। भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में रविन्द्र नाथ टैगोर ने प्रत्यक्ष या शारीरिक रूप से जुड़ाव नहीं रहा फिर भी अनेक अवसरों पर उन्होंने वैचारिक सक्रियता के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी ।
टैगोर ने स्वदेशी आंदोलन के दौरान अपने गीतों के माध्यम से देश प्रेम का आह्वान किया । यह उनका देशप्रेम तथा उनकी राष्ट्रवादी विचार ही था जिससे प्रेरित होकर राष्ट्रीय आंदोलन में अनेक अवसरों पर वैचारिक सक्रियता के माध्यम से सच्चे देशभक्त होने का परिचय दिया।
राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिका
- 1905 के स्वदेशी आंदोलन में विशेष भूमिका निभाते हुए बंगाल विभाजन को रक्षा दिवस के रूप में मनाकर विरोध जताया जिसमें अहिंसा एवं प्रेम मूल तत्व था।
- “आमार सोनार बांग्ला” गीत की रचना कर राष्ट्रीय एकता को बढ़ाया जो कालांतर में बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत बना ।
- टैगोर द्वारा रचित “जन गण मन” को 1911 के कलकत्ता अधिवेशन में पहली बार गाया गया जो राष्ट्रीय आंदोलन का प्रतीक बना तथा स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार द्वारा राष्ट्रगाण के रूप में अपनाया गया।
- वर्ष 1919 में जलियावाला बांग हत्याकांड से आहत होकर विरोधस्वरूप टैगोर द्वारा “सर” की उपाधि ब्रिटिश सरकार को लौटा दी गयी।
- 1920 में असहयोग आंदोलन के दौरानविदेशी कपड़ों की होली जलाए जाने की घटना को “संसाधनों की निष्ठुर बर्बादी” कहा।
- वर्ष 1930 में होनेवाले सविनय अवज्ञा आंदोलन को समर्थन किया गया।
टैगोर का मानवतावाद
टैगोर मानवाधिकारों के प्रबल समर्थक थे उनके अनुसार मानवाधिकार किसी बाहरी स्थिति से नहीं बल्कि आत्मा से संबंधित है। टैगोर के चिंतन में मानवतावादी विचार केन्द्र में रहा है। टैगोर मानते थे कि जिस प्रकार जल स्वाभाविक प्रवृत्ति समुद्र की ओर प्रवाह करने और उसमें मिल जाने की होती है उसी प्रकार मानव आत्मा की भी यह प्रवृत्ति होती है कि वह अपने संकुचित अहम को त्यागते हुए अनंत ब्रह्मा में मिल जाए। इस प्रकार वे विश्व मानवतावाद का समर्थन करते हैं तथा मानव एकता के प्रति पूर्ण विश्वास व्यक्त करते हैं।
राजनीतिक स्वतंत्रता
राजनीतिक स्वतंत्रता के समर्थक टैगोर का मानना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता के अभाव में लोगों की नैतिक सोच घट जाती है तथा उनकी आत्मा संकुचित हो जाती है । टैगोर ने स्वतंत्रता के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मानव आत्म-स्वायत्त है और यह स्वायत्तता सामाजिक राजनीतिक कारणों से घट जाती है।
टैगोर का मानना था कि ईश्वर कहीं जंगल या मंदिर में नहीं बल्कि उस प्रत्येक व्यक्ति में होता है जिसमें गरीबों, दलितों और कमजोर के लिए सहानुभूति होती है। जीवन का आनंद तभी आता है जब अपने संकुचित अहम को त्यागा जाता है और अपने को ईश्वर से जोड़ा जाता है।
राज्य संबंधी विचार
टैगोर राज्य और इसकी संस्थाओं में विश्वास नहीं करते थे और राज्य के प्रभाव को सीमित किए जाने के समर्थक थे। उन्होंने राज्य की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व प्रदान किया। टैगोर कल्याणकारी राज्य के भी आलोचक थे क्योंकि उनका मानना था कि राज्य को अपनी जनता को शक्ति एवं प्रेरणा दी जानी चाहिए तथा राज्य को उन कार्यों को नहीं लेना चाहिए जिन्हें करने का उत्तरदायित्व जनता का है। इस संबंध में टैगोर ने प्राचीन भारत में विद्यमान व्यवस्था की तारीफ की जिसमें जनता अपने राज्य पर बोझ डाले बिना समुदाय के कल्याण संबंधी दायित्वों को स्वतः पूरा कर लेते थे। इस प्रकार टैगोर ने राज्य की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व प्रदान किया।
लोकतंत्र संबंधी विचार
टैगोर लोकतंत्र का समर्थन करते हुए राजनीतिक रूप से जनता की भागीदारी पर बल देते थे । टैगोर का मानना था कि नैतिकता पर आधारित राजनीति द्वारा ही सच्चा लोकतंत्र स्थापित किया जा सकता है ।
स्वतंत्रता संबंधी विचार
टैगोर के अनुसार स्वतंत्रता का तात्पर्य सार्वभौमिकता की प्राप्ति है जिसे प्रेम के मार्ग पर चलकर प्राप्त किया जा सकता है। इनके अनुसार आत्मा की स्वतंत्रता ही सच्ची स्वतंत्रता है। इनका मानना हैं कि मानव एक सामाजिक प्राणी है जहां उसे बंधनों में जीवन व्यतीत करना होता है और इन संकीर्ण सामाजिक रूढ़ियों तथा पंथों के प्रभाव के कारण व्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होती है । लेकिन दूसरी ओर आध्यात्मिक जगत भी है जो मानव के लिए स्वतंत्रतापूर्वक जीवन भी उपलब्ध करा सकता है जिसे आत्म साक्षात्कार द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार आत्म साक्षात्कार द्वारा आत्मा को प्रदीप्त करना स्वतंत्रता का सार हैं। इसी क्रम में टैगोर की स्वतंत्रता का सिद्धांत विस्तृत अर्थों वाला है जो पृथकतावादी स्वाधीनता के स्थान पर सामाजिक बंधनों का आनंदपूर्ण सामंजस्य का समर्थन करता है ।
वे न केवल भारत बल्कि संपूर्ण एशिया की राजनीतिक स्वतंत्रता का समर्थन करते थे बल्कि उन्होंने अपने भाषणों में भारत के साथ-साथ चीन, स्याम आदि की स्वतंत्रता की बात भी करते थे। भारत की स्वतंत्रता आंदोलन को आजीवन उन्होंने वैचारिक रूप से समर्थन दिया ।
अंतर्राष्ट्रवाद संबंधी विचार
टैगोर विश्व शांति के प्रबल समर्थक थे जो उनके राष्ट्रवाद संबंधी विचारों से भी स्पष्ट होता है । उनका मानना है कि विश्व के सभी राष्ट्रों के मध्य परस्पर मैत्री और एकता होनी चाहिए तभी विश्व शांति संभव है। टैगोर पूर्व एवं पश्चिम के समन्वय पर जोर देते हुए “वसुधैव कुटम्बकम” की विचारधारा में विश्वास करते हैं। उनका मानना है कि आत्मिक स्तर पर विश्व के सभी प्राणी समान है इस प्रकार “विश्व बंधुत्व” और “सर्वे भवंतु सुखिनः” की सार्वभमिक विचारधारा का समर्थन करते हैं।
सामजिक विचार
टैगोर के सामजिक विचार में प्रेम एवं भाईचारा को विशेष महत्व दिया गया है। वे समाज में नैतिकतायुक्त तथा आपसी समन्वय पर आधारित समाज का समर्थन करते हैं। टैगोर का मानना था कि सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज में असमानता का कोई स्थान नहीं है और इस संबंध में उनके द्वारा अस्पृश्यता का घोर विरोध किया जाता है।
इसी क्रम में टैगोर जमींदारों से आशा करते थे कि वे किसानों, रैयतों के हितों की रक्षा करें क्योंकि उनका मानना था कि रचनात्मक कार्य ही मानव कल्याण का एक मार्ग है । अखंड भारत के समर्थन द्वारा देश को सांप्रदायिकता की आग से बचाना चाहते थे । इस प्रकार वे हिंदू मुस्लिम एकता के समर्थक थे ।
रविन्द्र नाथ टैगौर की शिक्षा संबंधी विचार
गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर आधुनिक भारत के महान् दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री थे जिन्होंने अपने मौलिक एवं नवीन विचारों के माध्यम से भारतीय शिक्षा एवं साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। रविन्द्रनाथ टैगोर के महान कार्यों के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने “गुरुदेव” की उपाधि से सम्मानित किया गया।
इनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य आत्म साक्षात्कार है जिसके माध्यम से आत्मनिर्भर एवं अध्यात्मिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है । टैगोर के अनुसार शिक्षा का संपर्क हमारे जीवन के विभिन्न पक्षों के साथ होना चहिए क्योंकि शिक्षा से ही व्यक्ति एवं समाज का कल्याण होता है ।
प्रकृतिवादी शिक्षा का समर्थन
रविन्द्र नाम टैगोर थोपी गयी पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण मानते हुए प्रकृतिवादी शिक्षा का समर्थन करते हैं जिसमें शिक्षा को प्राकृतिक वातावरण में दिये जाने पर बल दिया जाता है। टैगोर का मानना है कि शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृति का विशेष महत्व है तथा सर्वोच्च शिक्षा वह है जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सांमजस्य स्थापित करती है। अतः जहां तक संभव हो बच्चे को पुस्तक के बजाए प्रत्यक्ष स्रोतों (प्रकृति) से ज्ञान प्राप्त करने का अवसर दिया जाना चाहिए।
टैगोर के अनुसार बच्चों को केवल पाठ्य-पुस्तकों का ही अध्ययन नहीं करना चाहिये वरन् सभी स्रोतों से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इसी से प्रेरित होकर गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने 1901 में ‘शांति निकेतन’ की स्थापना की जो वर्तमान में ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय’ के नाम से जाना जाता है। शांति निकेतन में ही रहकर इन्होंने ‘गीतांजलि’ की रचना की जिसके लिए 1912 में साहित्य का नोबेल पुरूस्कार प्राप्त हुआ।
विद्यार्थी जीवन
टैगोर ने विद्यार्थी जीवन को बहुत पवित्र मानते हुए विद्यार्थियों में शिक्षण के दौरान विनम्रता, अच्छा आचरण, स्वच्छता, अनुशासन आदि गुणों की अपेक्षा की है। इनमें से अधिकांश नियम आज भी उपयोगी है, जिनका पालन करके विद्यार्थी समाज व राष्ट्र के सच्चे नागरिक बन सकते है।
वर्तमान समय में शिक्षा
वर्तमान समय में शिक्षा के गिरते स्तर में जहां विद्यार्थी वर्ग में अनुशासनहीनता अकर्मव्यता, उद्दण्डता हिंसक प्रवृत्ति, आदि बढ़ती जा रही है तो वही दूसरी ओर शिक्षकों की कर्तव्यहीनता एवं शिक्षा का व्यवसायीकरण चिंता का विषय है। इसी क्रम में वर्तमान परिवेश में व्याप्त अव्यवस्था, गिरते हुये नैतिक स्तर का कारण भी हमारी शिक्षा व्यवस्था है। अतः इस संदर्भ में वर्तमान समय में शिक्षा की सार्थकता को बढ़ाने में रविन्द्र नाथ टैगौर की विचारधारा एवं शिक्षा संबंधी दृष्टिकोण अनुकरणीय है जो सार्वभौमिक तथा मानवीय मूल्यों को प्रतिपादित करने के साथ-साथ नैतिकता का पाठ पढ़ाती है। नैतिकता के अभाव में कोई भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता।