डेविस एंव पेंक का अपरदन चक्र

अपरदन चक्र-डेविस तथा पेंक का अपरदन चक्र

अपरदन चक्र क्या है

धरातल पर अंतर्जात बल (Endogenetic Forces) तथा बर्हिजात बल (Exogenetic force) निरंतर क्रियाशील होते हैं । धरातल पर जैसे ही अंतर्जात बलों द्वारा विषमताओं का निर्माण किया जाता है बर्हिजात बल इन विषमताओं को दूर करने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं और अंततः उस भाग को समतल प्रायः मैदान में परिवर्तित कर देते हैं।

 

 इस प्रकार इस कार्य में लगने वाली अवधि तथा विभिन्न अवस्थाओं (तरुण, प्रौढ़ तथा जीर्ण) के सम्मिलित रूप को अपरदन चक्र कहा जाता है। इस अवधि में बर्हिजात बल द्वारा ऊपर उठाया गया भाग अपक्षय तथा अपरदन द्वारा समप्राय मैदान में बदल जाता है। इस अपरदन चक्र को डेविस महोदय द्वारा भौगोलिक चक्र (Geographical Cycle) कहा गया है।

 

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Civil Service Mains Answer writing 

डेविस का भौगोलिक चक्र

1899 में डेविस महोदय ने भौगोलिक चक्र की संकल्पना का प्रतिपादन किया तथा बताया कि भौगोलिक चक्र या अपरदन चक्र समय की वह अवधि है जिसके अंतर्गत उत्थित भूखंड अपरदन के प्रक्रम द्वारा अपरदित होकर एक आकृतविहीन समतलप्राय मैदान में बदल जाता है।

 

इस प्रकार डेविस ने बताया कि स्थलरूपों के निर्माण तथा विकास पर संरचना, प्रक्रम (अपरदन के कारण) तथा अवस्था (समय) का प्रभाव होता है और स्थलरूप संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था का प्रतिफल है । इन तीन कारकों को डेविस के त्रिकूट (Trio of Davis) के नाम से जाना जाता है।

संरचना (Structure)

  • डेविस द्वारा प्रयुक्त शब्द संरचना में शैल की स्थिति तथा प्रकृति दोनों शामिल है । शैलों की स्थिति में शैलों का अभिनत कोण, वलन(Fold) या भ्रंश (Faults) को शमिल किया जाता है जबकि शैलों की प्रकृति में शैलों के प्रकार, कठोरता तथा पारगम्यता को शामिल किया जाता है ।
  • संरचना का निर्माण पटलविरूपण द्वारा लंबी अवधि में होता है तथा स्थलरूपों के निर्माण में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है

प्रक्रम(Process)

  • धरातल पर परिवर्तन लाने वाले कारक प्रक्रम कहलाते हैं । यह अंतर्जात (भूकंप, ज्वालामुखी) तथा बर्हिजात (नदी, वायु, भूमिगत,जल, हिमनदी, समुद्री लहरें) दोनों होते हैं ।
  • बहिर्जात प्रक्रमों के अपने विशिष्ट कार्य क्षेत्र होते हैं जैसे वायु शुष्क क्षेत्रों में, भूमिगत जल चूनापत्थर क्षेत्रों में, हिमनदी का कार्य शीत प्रदेशों में अधिक होता है । विशिष्ट स्थलाकृति का संबंध उसके प्रक्रम के साथ सुगमता से स्थापित किया जा सकता है  जैसे- डेल्टा नदी द्वारा, बालुका स्तूप वायु द्वारा, लटकती घाटी हिमनदी द्वारा ।
  • प्रक्रम की सक्रियता स्थलाकृतियों के आकार, विस्तार पर भी प्रभाव डालती है, जैसे- पर्वतीय क्षेत्र में नदी तीव्र अपरदन कर तंग घाटियां, गार्ज, केनियन तो मैदानी भागों में विसर्प, बाढ़ का मैदान बनाती है।

अवस्था (Stage)

  • अवस्था से पता चलता है कि स्थलाकृतियों के निर्माण में प्रक्रम किस सीमा तक अपना कार्य कर चुके हैं । डेविस महोदय ने तीन अवस्थाएं मानी हैं- युवावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था।
  • कोमल शैल वाले क्षेत्रों में स्थलाकृतियां शीघ्र ही युवावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था प्राप्त कर लेती हैं जबकि कठोर शैल में अधिक समय तक युवावस्था या प्रौढ़ावस्था रहती है।

डेविस के भौगोलिक चक्र की मान्यताएं

  • स्थलरूप अंतर्जात एवं बहिर्जात कारकों की पारस्परिक क्रिया का प्रतिफल होता है।
  • स्थलरूपों का स्वरूप पयर्यवरणीय दशाओं में परिवर्तन के अनुरूप होता है ।
  • नदियां प्रवणित/क्रमबद्ध (Graded) होने की सीमा तक लम्बवत अपरदन करती है इसके बाद नदियां पार्श्व अपरदन कर घाटी को चौड़ा करती है।
  • स्थलखंड का उत्थान तीव्र गति से अल्प अवधि में होता है।
  • जब तक उत्थान समाप्त नहीं होता, अपरदन प्रारंभ नहीं होता है।

प्रथम अवस्था

डेविस महोदय के अनुसार एकसमान संरचना वाले धरातलीय भाग में उत्थान के साथ अपरदन चक्र आरंभ होता है । धरातलीय उत्थान तीव्र गति से होता है तथा उत्थान की यह अवधि चक्रीय अवधि में शामिल नहीं किया जाता है । इसे अपरदन चक्र की प्रारंभिक अवस्था/उत्थान की अवस्था कहते हैं।भूगोल अपरदन चक्र चित्र में बिन्दु के बाद उत्थान जब समाप्त होता है तथा प्रारंभिक अवस्था समाप्त होती है और इसी समय से अपरदन चक्र का कार्य आरंभ हो जाता है । संपूर्ण चक्र तीन अवस्थाओं में गुजरता है जिसे तरुणावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा जीर्णावस्था में बांटा गया ।

द्वितीय अवस्था

  • तरुणावस्था- “स-य” के बाद उत्थान समाप्त हो जाता है और यहां से डेविस का अपरदन चक्र आरंभ होता है । तरुणावस्था स्थलखंड के उत्थान की समाप्ति के बाद प्रारंभ होता है जिसमें निम्न कटाव ज्यादा होता है और नदी घाटी गहरी संकरी होती जाती है परंतु ऊपरी वक्र अपरदन से अप्रभावित रहते है।
  • इस प्रकार सापेक्षित उच्चावच में निरंतर वद्धि होती जाती है तथा तरुणावस्था के अंत में अधिकतम उच्चावच विकसित होता है। इस अवस्था में घाटियों का आकार V होता है और इस प्रकार गार्ज, केनियन बनते हैं।

तृतीय अवस्था

इस अवस्था की अवधि सबसे लम्बी होती है और इसे 2 भागों प्रौढ़ावस्था तथा जीर्णावस्था में बांटा जाता है ।

  • प्रौढ़ावस्था- इस चरण के प्रारंभ होते ही पार्श्व अपरदन प्रारंभ हो जाता है। अथार्त घाटियों की चौड़ाई बढ़ने लगती है । फलस्वरूप उपरी वक्र में गिरावट  आने लगती है । पार्श्व अपरदन के कारण तरुणावस्था की V घाटियां चौड़ी घाटी में बदल जाती है।
  • जीर्णावस्था- जैसे ही लम्बवर्ती अपरदन समाप्त होता है जीर्णावस्था प्रारंभ हो जाती है हांलाकि पार्श्व अपरदन तथा घाटी के चौड़ा होने का कार्य अब भी जारी रहता है । इस चरण में ऊपरी वक्र में तेजी से गिरावट आती है और उच्चावच तेजी से घटने लगती है । घाटियां उथली और चौड़ी हो जाती है । इस अवस्था में समस्त स्थलखंड निम्न उच्चावच वाला होता है जिस पर नदियां मियांडर बनाती हुई बाढ़ का मैदान बनाती है जिसे डेविस ने समप्रायः मैदान (पेनीप्लेन) कहा । इसी सतह पर कम ऊंचाई की बिखरी हुई अवशिष्ट पहाड़ियां पायी जाती है जिसे डेविस ने मोनाडनॉक कहा।

 

सकारात्मक/प्रभावी पक्ष

  • अत्यधिक सरल तथा व्यवहारिक
  • डेविस का मॉडल व्यापक स्तर पर क्षेत्र अध्ययन से प्राप्त परिणामों पर आधारित है।

कमजोर पक्ष/आलोचना 

  • संकल्पना आवश्यकता से अधिक सरलीकृत है ।
  • डेविस ने उत्थान को त्वरित दर से अल्पकालिक बताया किन्तु प्लेट विवर्तन सिद्धांत के अनुसार उत्थान की प्रक्रिया सतत चलती है तथा इसकी गति मंद होती है।
  • अपरदन उत्थान की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं कर सकता, जैसे ही उत्थान आरंभ होता है वैसे ही अपरदन भी प्रारंभ हो जाता है।
  • डेविस ने भौगोलिक चक्र की तीनों अवस्थाओं (तरुण, प्रौढ़ तथा जीर्ण) से होकर समाप्त होने के लिए स्थलखंड को दीर्घकाल तक स्थिर दशा में रहना होगा परंतु प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के अनुसार स्थलखंड का दीर्घकालीन स्थिरता संभव नहीं है।
  • इसमें समय को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया गया है जबकि पेंक के अनुसार स्थलरूप उत्थान एवं अपरदन की दरों के संबंधों पर आधारित होता है।
  • डेविस की लम्बी अवधि तक समान संरचना तथा स्थिर जलवायु की धारणा को बहुत से विद्वानों ने मान्यता नहीं दी है।

डेविस के अपरदन चक्र का मूल्यांकन

डेविस महोदय के भौगोलिक चक्र को विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई। हालांकि इस सिद्धांत के कई आलोचक भी हैं। फिर भी इस सिद्धांत की इतनी महत्ता है कि आलोचक भी डेविस के उदाहरणों को अपने विवरण में पर्याप्त स्थान देते हैं ।

पेंक का अपरदन चक्र

  • 1924 में जर्मन विदान वॉल्टन पैंक ने अपरदन चक्र का नया प्रारूप अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किया। पेंक ने डेविस के मत का विरोध किया और बताया कि अपरदन क्रिया पूर्ण उत्थान की प्रतीक्षा नहीं करती बल्कि उत्थान आरंभ होते ही अपरदन क्रिया आरंभ हो जाती है।
  • पेंक ने अपने अपरदन चक्र के प्रारंभ के लिए एक नीचा आकृतिहीन मैदान की कल्पना की जिसे Prima rumpff नाम दिया । Prima rumpff समप्राय मैदान जैसा होता है जिसमें न तो अधिक ऊंचाई होती है और न ही उच्चावच ।
  • इनके अनुसार उत्थान तथा अपरदन दोनों साथसाथ चलते हैं परन्तु उत्थान विभिन्न दरों से संपादित होता है । उत्थान तथा अपरदन के भिन्न-2 दशाओं में विशेष प्रकार के ढालों का निर्माण होता है जो कि स्थलरूप के विकास का कारण बनता है । पेंक के अनुसार स्थलरूपों का निर्माण ढालों से होता है ।

पैंक ने स्थलखंड के उत्थान की निम्न तीन अवस्थाएं मानी है

  1. ऑफस्टीगेंडे ऐंटविकलुंग– उत्थान की प्रथम अवस्था जिसमें आरंभ में स्थल खंड धीरे-धीरे ऊपर उठने लगता है फिर गति अत्यधिक तीव्र हो जाती है।
  2. ग्लीचफोर्मिंग ऐण्टविकलुंग- उत्थान के मध्यम अवस्था जिसमें उत्थान समान गति से होता है।
  3. एब्स्टीगेंड ऐंटविकलुंग- उत्थान की अंतिम अवस्था जिसमें उत्थान मंद गति से होता है।

चित्र में “क” स्थान से Prima rumpff का उत्थान प्रारंभ होता है और उसके साथ-साथ अपरदन कार्य भी प्रारंभ हो जाता है । पेंक ने अपने चक्र को 5 अवस्थाओं में विभाजित किया है-

  1. प्रथम अवस्था इस अवस्था में उत्थान तथा अपरदन दोनों होते हैं किन्तु उत्थान की क्रिया अपरदन से अधिक होता है जिसके फलस्वरूप भूखंड की ऊंचाई बढ़ती है । इस अवस्था में ऊंचाई तथा उच्चावच दोनों ही बढ़ते हैं ।
  2. द्वितीय अवस्था– इसमें भी उत्थान तथा अपरदन क्रिया होती है । अपरदन की मात्रा उत्थान की अपेक्षा कम होने से निरपेक्ष ऊंचाई मंद गति से बढ़ती है । दोनों वक्रों पर उत्थान तथा अपरदन समान होता है जिससे उच्चावच स्थिर रहता है।
  3. तृतीय अवस्था– इस अवस्था में उत्थान तथा अपरदन में संतुलन आ जाता है । ऊंचे भू-भागों पर भी अपरदन कार्य होने से औसत ऊंचाई बढ़ नहीं पाती । इसी प्रकार निचले भू-भाग की औसत ऊंचाई भी एक समान रहती है और उच्चावच में कोई अंतर नहीं आता ।
  4. चतुर्थ अवस्था इस अवस्था में उत्थान समाप्त हो जाता है कुछ समय के लिए घाटी गहरी होती जाती है । अपरदन से दोआब नीचे होने लगते हैं और ऊंचाई कम होना प्रारंभ हो जाती है किन्तु उच्चावच पूर्व के समान ही रहता है ।
  5. पंचम अवस्था यह अपरदन चक्र की अंतिम अवस्था है जिसमें घाटी का गहरा होना कम हो जाता है।

पेंक के अपरदन चक्र का गुण

  • पेंक ने अपनी संकल्पना को सविस्तार एवं सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया है ।
  • पेंक ने उत्थान तथा अपरदन में पारस्परिक संबंध को अच्छे से दर्शाया है जो इस संकल्पना की एक विशेषता है।

पेंक के अपरदन चक्र का दोष

  • पेंक के अनुसार अपरदन चक्र की सारी घटनाएं क्रमबद्ध तरीके से होती है जो कि कल्पना है ।
  • उत्थान तथा अपरदन में पारस्परिक संबंध पर ज्यादा जोर दिया गया है ।
  • भूखंडों की प्रारंभिक दशाओं के बारे में पर्याप्त जानकारी के अभाव के कारण पेंक की संकल्पना काल्पनिक प्रतीत होते हैं ।

डेविस तथा पेंक के अपरदन चक्र में अंतर

 

डेविस का अपरदन चक्र

पेंक का अपरदन चक्र

01 उत्थान तथा अपरदन साथ-साथ नहीं होते । उत्थान तथा अपरदन साथ-साथ होते हैं ।
02 उत्थान अल्पकालिक होता है। उत्थान का समय अल्प, दीर्घ या मध्यम प्रकार का हो सकता है।
03 उत्थान की गति तीव्र होती है उत्थान की गति कभी तीव्र तो कभी मंद होती है ।
04 डेविस के अनुसार स्थलरूप संरचना, प्रक्रम तथा अवस्थाओं का प्रतिफल है। पेंक के अनुसार उत्थान की दर तथा निम्नीकरण के आपसी संबंध का परिणाम स्थलरूप है।
05 तीन अवस्थाएं होती है तरुणावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा जीर्णावस्था अवस्थाओं के स्थान पर तीन दशाएं मानी है- आफस्टीगेंडे(बढ़ती गति), गलीचफोर्मिग(समान गति) तथा ऐब्सटीगेंडे (घटती गति)
06 ढाल का विशेष महत्व नहीं । ढाल को प्रमुख स्थान दिया
07 3 दशाएं होती है जिसमें उच्चावच स्थिर नहीं रहता है। 5 अवस्थाएं जिसमें उच्चावच द्वतीय, तृतीय तथा चतुर्थ अवस्थाओं में स्थिर रहता है।
08 प्रथम अवस्था में अपरदन नहीं होता । अपरदन सभी अवस्थाओं में होता है।
09 अपरदन चक्र की अंतिम अवस्था में पेनीप्लेन/समप्राय मैदान की कल्पना की है । अपरदन चक्र की अंतिम अवस्था में इन्ड्रम्प  की कल्पना की है।
10 डेविस के चक्र में भू-वैज्ञानिक आधार को कम महत्व दिया गया। पैंक के विचार में भू-वैज्ञानिक आधार है ।

डेविस तथा पेंक  का तुलनात्मक अध्ययन

अपरदन चक्र का प्रतिपादन सर्वप्रथम अमेरिकी भूगोलशास्त्री डेविस महोदय द्वारा किया गया तथा इनके बाद जर्मन भूगर्भ शास्त्री पेंक द्वारा अपरदन चक्र की संकल्पना दी गई । इन्होंने अपने अपरदन चक्र में माना कि स्थल रूपों का विकास कई अवस्थाओं से होकर गुजरता है ।

दोनों विद्वानों के मध्य निम्न बातों पर समानता पायी जाती है-

  • अपरदन क्रिया का अंतिम लक्ष्य आधार तल को प्राप्त करना है ।
  • अपरदन की क्रिया उत्थित स्थलखंड पर घटित होती है ।
  • अपरदन चक्र के अंत में अपरदित मैदान आकृतविहीन हो जाती है ।

दोनों विद्वानों द्वारा प्रस्तुत संकल्पना में  उपरोक्त बातों में समानता होने के बावजूद अनेक मुद्दे जैसे उत्थान, अपरदन चक्र,  ढाल, समप्राय मैदान के निर्माण पर मतभेद भी पाए जाते हैं ।

उत्थान

  • डेविस तथा पेंक दोनों ने माना है कि अपरदन चक्र के विकास के लिए उत्थान आवश्यक है लेकिन दोनों के मध्य उत्थान एवं अपरदन चक्र के बीच संबंधों पर वैचारिक विरोधाभास है ।
  • डेविस के अनुसार उत्थान की क्रिया आकस्मिक घटना है तथा उत्थान समाप्त होने के बाद अपरदन की क्रिया शुरू होती है जबकि पेंक महोदय का मानना है कि उत्थान व अपरदन प्रक्रिया दोनों साथ साथ चलती है ।

अपरदन चक्र

  • डेविस का मानना है कि अपरदन की अवस्था (युवावस्था, प्रौढ़ावस्था  तथा वृद्धावस्था) में संपन्न होती है ।  युवावस्था में तीव्र अपरदन के बावजूद उच्चावच में लगातार वृद्धि होती है परंतु वृद्धावस्था आते-आते उच्चावच तीव्र अपरदन के कारण समतलप्रायः मैदान में तब्दील हो जाता है ।
  • पेंक के अनुसार स्थलाकृति का विकास पांच  दशाओं में संपन्न होता है । प्रथम तीन  दशाओं में  उत्थान तथा अपरदन  क्रिया एक साथ होती है । चौथी अवस्था में प्रारंभ में उत्थान समाप्त हो जाती है तथा अपरदन क्रिया तेज हो जाती है जबकि पांचवी अवस्था में अपरदन में तीव्रता आने से वास्तविक ऊंचाई व उच्चावच में तेजी से कमी आती है ।

ढाल

  • दोनों ने माना है कि अपरदन चक्र की विकास प्रक्रिया ढाल निर्भर करती है किंतु डेविस ने ढाल को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया है और इसमें पृथ्वी के गुरुत्व को महत्वपूर्ण कारक माना है ।
  • पेंक ने अपनी संकल्पना में ढाल को अधिक महत्व दिया है तथा स्पष्ट किया है कि अपरदन क्रिया के फलस्वरुप ढाल की दशा में बदलाव आता है ।

समप्राय मैदान

  • दोनों का मानना है कि अपरदन चक्र की अंतिम अवस्था में आकृतविहीन समतल मैदान का निर्माण होता है । डेविस के अनुसार समप्राय मैदान के मध्य में अपरदन से बचे स्थलखंड रह जाते हैं जिसे मोनोडनॉक कहा गया । इनके अनुसार समप्राय मैदान के बाद अपरदन नहीं होता है लेकिन यदि धरातल का उत्थान हो तो दूसरा अपरदन चक्र प्रारंभ हो जाता है ।
  • पेंक के अनुसार इन्ड्रफ की स्थिति में मुख्य नदी अधारताल प्राप्त कर लेती है जिसके बाद अपरदन कार्य गौण हो जाता है ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि भू-आकृति के विकास को समझने में दोनों विद्वानों के विचार में काफी असमानताएं हैं फिर भी दोनों के विचार स्थलरूपों के विकास को समझने में काफी सहायक है ।

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