अध्‍याय-3  बंधुत्व, जाति तथा वर्ग आरंभिक समाज

बंधुत्व, जाति तथा वर्ग आरंभिक समाज-NCERT

बंधुत्व, जाति तथा वर्ग आरंभिक समाज (लगभग 600 ई.पू.से 600 ईसवी)

NCERT, Class-12 भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग-1 के अध्‍याय-3  बंधुत्व, जाति तथा वर्ग आरंभिक समाज संबंधित महत्‍वपूर्ण तथ्‍यों को देखनेवाले हैं । यहां पर केवल उन तथ्‍यों को लिया गया है जो हमारे अनुसार किसी भी प्रतियोगी परीक्षा के लिए महत्‍वपूर्ण है। ज्‍यादा जानकारी के लिए आप NCERT की अधिकारिक वेवसाइट पर जाकर संपूर्ण पुस्‍तक को पढ़ सकते हैं।  

लगभग 600 ई.पू. से 600 ईसवी तक के मध्य आर्थिक और राजनीतिक जीवन में हुए कुछ परिवर्तनों ने समकालीन समाज पर अपना प्रभाव छोड़ा जिसमें प्रमुख है

  • वन क्षेत्रों में कृषि का विस्तार हुआ जिससे वहाँ रहने वाले लोगों की जीवनशैली में परिवर्तन हुआ।
  • शिल्प विशेषज्ञों के एक विशिष्ट सामाजिक समूह का उदय हुआ।
  • संपत्ति के असमान वितरण ने सामाजिक विषमताओं को अधिक प्रखर बनाया।

 

महाभारत- एक समृद्ध ग्रंथ

  • एक विशाल महाकाव्य जो अपने वर्तमान रूप में एक लाख श्लोकों से अधिक है
  • यह ग्रंथ विभिन्न सामाजिक श्रेणियों व परिस्थितियों का लेखा-जोखा है।
  • इस ग्रंथ की रचना एक हजार वर्ष तक होती रही (लगभग 500 ई.पू.से)तथा कुछ कथाएँ तो इस काल से पहले भी प्रचलित थीं।
  • मुख्य कथा दो परिवारों के बीच हुए युद्ध का चित्रण है ।
  • इस ग्रंथ के कुछ भाग विभिन्न सामाजिक समुदायों के आचार-व्यवहार के मानदंड तय करते हैं।
  • यह कौरव और पांडव के बीच भूमि और सत्ता को लेकर हुए संघर्ष का चित्रण करती है। दोनों ही दल कुरु वंश से संबंधित थे जिनका एक जनपद पर शासन था।
  • महाभारत की मुख्य कथावस्तु ने पितृवंशिक व्यवस्था के आदर्श को और सुदृढ़ किया। पितृवंशिकता में पुत्र पिता की मृत्यु के बाद उनके संसाधनों पर/ सिंहासन पर अधिकार जमा सकते थे।

 

धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र

  • समकालीन बढ़ती सामाजिक जटिलताओं ने आरंभिक विश्वासों और व्यवहारों पर प्रश्नचिह्न लगाए गए जिसके लिए ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार कीं। ब्राह्मणों को इन आचार संहिताओं का विशेष पालन करना होता था किंतु बाकी समाज को भी इसका अनुसरण करना पड़ता था।
  • लगभग 500 ई.पू.से इन मानदंडों का संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया जिनमें इसमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी।
  • इन ग्रंथो के ब्राह्मण लेखकों का यह मानना था कि उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक है और बनाए गए नियम का सबके द्वारा पालन होना चाहिए किन्‍तु वास्‍तविक सामाजिक संबंध कही अधिक जटिल थे।
  • इसी क्रम में उपमहाद्वीप में फैली क्षेत्रीय विभिन्‍नत और संचार बाधाओं के कारण ब्राह्मणों का प्रभाव सार्वभौमिक नहीं था।
  • धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र जहां विवाह के 8 प्रकार को स्‍वीकृति देते हैं जिनमें पहले 4 को उत्‍तम तथा शेष को निदिंत माना गया। संभव है कि ये विवाह उन लोगों में प्रचलित थी जो ब्राह्मणीय नियमों को अस्‍वीकार करते थे।

धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में चारों वर्गों के लिए आदर्श ‘जीविका’ से जुड़े नियम

  1. ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना था तथा उनका काम दान देना और लेना था।
  2. क्षत्रियों का कर्म युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देना था।
  3. वैश्यों का कार्य वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देने के अलावा कृषि, गौ-पालन और व्यापार कर्म भी अपेक्षित था।
  4. शूद्रों के लिए मात्र एक ही जीविका थी-तीनों ‘उच्च’ वर्णो की सेवा करना।

आदर्श जीविका संबंधी नियमों का पालन करवाने हेतु ब्राह्मणों नीतियाँ 

  • वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को एक दैवीय व्यवस्था के रूप में स्‍थापित किया
  • ब्राह्मणों ने शासकों को उपदेश देते थे कि वे इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्यों में अनुसरण करें।
  • ब्राह्मणों ने लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है।

हांलाकि ऐसा करना आसान बात नहीं थी। अतः इन मानदंडों को बहुधा महाभारत जैसे अनेक ग्रंथों में वर्णित कहानियों के द्वारा बल प्रदान किया जाता था।

एक दैवीय व्यवस्था

अपनी मान्यता को प्रमाणित करने के लिए ब्राह्मण बहुधा ऋग्वेद के पुरुषसूक्त मंत्र को उद्धृत करते थे जो आदि मानव पुरुष की बलि का चित्रण करता है। जगत के सभी तत्व जिनमें चारों वर्णं शामिल हैं, इसी पुरुष के शरीर से उपजे थे। ब्राह्मण उसका मुँह था, उसकी भुजाओं से क्षत्रिय निर्मित हुआ, वैश्य उसकी जंघा थी, उसके पैर से शूद्र की उत्पत्ति हुई।

प्राचीन भारत में जटिल सामाजिक प्रक्रियाएं

  • बौद्ध ग्रंथों के अनुसार मौर्य शासक क्षत्रिय वर्ग के थे हांलाकि ब्राह्मणीय शास्त्र उन्हें ‘निम्न’ कुल का मानते हैं। इसी प्रकार मौर्यों के उत्तराधिकारी शुंग और कण्व शासक ब्राह्मण कुल के थे ।
  • उपरोक्‍त तथ्‍यों से पता चलता है कि राजनीतिक सत्ता का उपभोग हर वह व्यक्ति कर सकता था जो समर्थन और संसाधन जुटा सके। राजत्व क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर शायद ही निर्भर करता था।

 

प्राचीन भारत में जाति प्रथा के भीतर आत्मसात होना बहुधा एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया थी जिसे सातवाहन कुल के सबसे प्रसिद्ध शासक गोतमी-पुत्त सातकर्णी के उदाहरण से समझ सकते हैं

  • सातवाहन कुल के सबसे प्रसिद्ध शासक गोतमी-पुत्त सिरी-सातकनि ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण और साथ ही क्षत्रियों के दर्प का हनन करने वाला बताया था। इस प्रकार सातवाहन स्वयं को ब्राह्मण वर्ण का बताते थे जबकि ब्राह्मणीय शास्त्र के अनुसार राजा को क्षत्रिय होना चाहिए।
  • वे चतुर्वर्णी व्यवस्था की मर्यादा बनाए रखने का दावा करते थे किंतु साथ ही उन लोगों से वैवाहिक संबंध भी स्थापित करते थे जो इस वर्ण व्यवस्था से ही बाहर थे
  • वह अंतर्विवाह पद्धति का पालन करते थे न कि बहिर्विवाह प्रणाली का जो ब्राह्मणीय ग्रंथों में प्रस्तावित है।
  • गोतमी-पुत्त सिरी-सातकनि ने चार वर्णों के बीच विवाह संबंध होने पर रोक लगाई। किंतु फिर भी रुद्रदामन के परिवार से उसने विवाह संबंध स्थापित किए।

 

जाति और सामाजिक गतिशीलता

  • ये जटिलताएँ समाज के वर्गीकरण के लिए शास्त्रों में प्रयुक्त एक और शब्द जाति से भी स्पष्ट होती हैं। ब्राह्मणीय सिद्धांत में वर्ण की तरह जाति भी जन्म पर आधारित थी। किंतु वर्ण जहाँ मात्र चार थे वहीं जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी। वस्तुतः जहाँ कहीं भी ब्राह्मणीय व्यवस्था का नए समुदायों से आमना-सामना हुआ उदाहरणतः जंगल में रहने वाले निषाद या फिर व्यावसायिक वर्ग जैसे सुवर्णकार, जिन्हें चार वर्णों वाली व्यवस्था में समाहित करना संभव नहीं था, उनका जाति में वर्गीकरण कर दिया गया। वे जातियाँ जो एक ही जीविका अथवा व्यवसाय से जुड़ी थीं उन्हें कभी-कभी श्रेणियों में भी संगठित किया जाता था।

 

वणिकों की स्थिति

  • संस्कृत के ग्रंथ और अभिलेखों में व्यापारियों के लिए वणिक शब्द प्रयुक्त किया जाता है। हालाँकि शास्त्रों में व्यापार को वैश्यों की जीविका बताया जाता है । अन्य स्रोतों में अधिक जटिल परिस्थिति देखने को मिलती है। जैसे शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम् (लगभग चौथी शताब्दी ईसवी) में नायक चारुदत्त को ब्राह्मण-वणिक बताया गया है। पाँचवीं शताब्दी ईसवी के एक अभिलेख में दो भाइयों को क्षत्रिय वणिक कहा गया है, जिन्होंने एक मंदिर के निर्माण के लिए धन दिया।

चार वर्णों के परे एकीकरण

  • उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली विविधताओं की वजह से यहाँ हमेशा से ऐसे समुदाय रहे हैं जिन पर ब्राह्मणीय विचारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। संस्कृत साहित्य में जब ऐसे समुदायों का उल्लेख आता है तो उन्हें कई बार विचित्र, असभ्य और पशुवत चित्रित किया जाता है। ऐसे कुछ उदाहरण वन प्रांतर में बसने वाले लोगों के हैं जिनके लिए शिकार और कंद मूल संग्रह करना जीवन निर्वाह का महत्वपूर्ण साधन था। निषाद वर्ग जिससे एकलव्य जुड़ा माना जाता था,
  • यायावर पशुपालकों के समुदाय को भी शंका की दृष्टि से देखा जाता था क्योंकि उन्हें आसानी से बसे हुए कृषिकर्मियों के साँचे के अनुरूप नहीं ढाला जा सकता था।

चार वर्णों के परे अधीनता और संघर्ष

  • ब्राह्मण कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानते थे। साथ ही उन्होंने समाज के कुछ वर्गों को ‘अस्पृश्य’ घोषित कर सामाजिक वैषम्य को और अधिक प्रखर बनाया। उनका मानना था कि कुछ कर्म, खासतौर से वे जो अनुष्ठानों के संपादन से जुड़े थे, पुनीत और ‘पवित्र’ थे, अतः अपने को पवित्र मानने वाले लोग अस्पृश्यों से भोजन नहीं स्वीकार करते थे।
  • कुछ कार्य ऐसे थे जिन्हें खासतौर से ‘दूषित’ माना जाता था। शवों की अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वालों को चाण्डाल कहा जाता था। उन्हें वर्ण व्यवस्था वाले समाज में सबसे निम्न कोटि में रखा जाता था। वे लोग जो स्वयं को सामाजिक क्रम में सबसे ऊपर मानते थे, इन चाण्डालों का स्पर्श, यहाँ तक कि उन्हें देखना भी, अपवित्रकारी मानते थे।
  • मनुस्मृति में चाण्डालों के ‘कर्तव्यों’ की सूची मिलती है। उन्हें गाँव के बाहर रहना होता था। वे फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे। रात्रि में वे गाँव और नगरों में चल-फिर नहीं सकते थे। संबंधियों से विहीन मृतकों की उन्हें अंत्येष्टि करनी पड़ती थी तथा वधिक के रूप में भी कार्य करना होता था।

संसाधन और प्रतिष्ठा

  • दास, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, शिकारी, मछुआरे, पशुपालक, किसान, ग्राममुखिया, शिल्पकार, वणिक और राजा सभी का सामाजिक स्थान बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करते थे कि आर्थिक संसाधनों पर उनका कितना नियंत्रण है।
  • मनुस्मृति के अनुसार पैतृक जायदाद का माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना चाहिए किंतु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था। स्त्रियाँ इस पैतृक संसाधन में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थीं।
  • किंतु विवाह के समय मिले उपहारों पर स्त्रियों का स्वामित्व माना जाता था और इसे स्त्रीधन की संज्ञा दी जाती थी। इस संपत्ति को उनकी संतान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी और इस पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था। किंतु मनुस्मृति स्त्रियों को पति की आज्ञा के विरुद्ध पारिवारिक संपत्ति अथवा स्वयं अपने बहुमूल्य धन के गुप्त संचय के विरुद्ध भी चेतावनी देती है।
  • लगभग पाँचवीं शताब्दी ईसवी के मंदसौर(मध्य प्रदेश)से मिले अभिलेख में किस श्रेणी का वर्णन मिलता है- रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी

BPSC Mains Special Notes Sample link https://drive.google.com/file/d/1JJvkFdIpL81Dw-8IgYE-rotY7mQe6dqo/view?usp=drive_link

संबंधित अध्‍ययन सामग्री हेतु हमारे वेवसाइट https://www.gkbucket.com/ पर एक बार अवश्‍य जाए। 
Youtube Channel Link https://www.youtube.com/@GKBUCKET

 

Leave a Comment

error: Content is protected !!
Scroll to Top