वर्तमान भारत के निर्माण में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का विशेष योगदान रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के समक्ष अनेक समस्याएं थी जिनको नेहरू जी ने अपने नेतृत्व में कुशलतापूर्वक हल किया, इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है। यह जवाहरलाल नेहरू जी के दुरदर्शी सोच का ही परिणाम है कि देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाकर देश को आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर किया। नेहरू के विचार, नीतियों, दार्शनिक अभिव्यक्ति पर पड़नेवाले प्रभावों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है।
जवाहर लाल नेहरू की विचारधारा- विकास एवं स्रोत
- पाश्चात्य उदारवाद- उदारवाद की पाश्चात्य अवधारणा ने नेहरू को सर्वाधिक प्रभावित किया और इससे इन्होंने अनेक तत्वों को ग्रहण किया जिनमें व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा, स्वतंत्र निर्वाचन, संसदीय सरकार की अवधारणा और प्रेस की स्वतंत्रता को ग्रहण किया ।
- गांधीवादी विचार- नेहरू जी की गांधी जी से प्रथम मुलाकात कांग्रेस के 1916 के अधिवेशन में हुई थी। हांलाकि गांधी तथा नेहरू के विचारों में वैचारिक साम्यता नहीं थी फिर भी गांधी की अहिंसा नीति से वे प्रभावित हुए।
- समाजवाद- नेहरू समाजवाद से गहरे प्रभावित थे लेकिन क्रांतिकारी पद्धति से असहमत थे तथा वर्ग विरोध अथवा वर्ग संघर्ष में विश्वास नहीं करते थे।
लोकतंत्र संबंधी विचार
भारत में स्वस्थ लोकतंत्र की नींव रखने और इसे मजबूत बनाने में पंडित नेहरू का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। उदारवाद तथा मानवतावाद संबंधी विचारों से नेहरू में लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ी। नेहरू जी ने लोकतंत्र की पाश्चात्य अवधारणा से अलग समतावादी मॉडल की संकल्पना पर बल दिया जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक समानता पर विशेष बल दिया गया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू को सत्तावादी सोच एवं हिंसा से नफरत थी तथा इसका कटु अनुभव उन्होंने औपनिवेशिक काल में महसूस किया था। इसी क्रम में नेहरू ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रत्येक पहलू को जांचा परखा और उनकी लोकतंत्र संबंधी भावनाओं और मजबूत हुई । भारत में अगर लोकतंत्र सफल हुआ है तो इसमें नेहरू के प्रयासों को भूलाया नहीं जा सकता ।
नेहरू ने लोकतंत्र को आत्म अनुशासन के रूप में देखा और कहा कि “आप लोकतंत्र को अनेक रूप में परिभाषित कर सकते हैं, परन्तु निशचित रूप से इसकी एक परिभाषा समुदाय के आत्म-अनुशासन के रूप में की जा सकती है और जितना ज्यादा आत्म-अनुशासन होगा, उतना ही लोकतंत्र का विकास होगा।”
पंचायती राज संस्थाएं एवं ग्रामीण विकास
भारत के आधुनिकीकरण में विश्वास रखनेवाले नेहरू जी भारतीय संस्कृति, परम्पराओं तथा मान्यताओं के प्रति भी आस्था रखते थे । उन्होंने ग्रामीण विकास हेतु सामुदायिक विकास कार्यक्रम, ग्राम पंचायत तथा सहकारी समितियों के विकास पर जोर दिया । उनका मानना था कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा सहकारी समितियों के माध्यम से गांव जहां आत्मनिर्भर बन सकते हैं वहीं अधिकारयुक्त ग्राम पंचायतों द्वारा गांव अपने सर्वांगीण विकास हेत योजनाओं का निर्माण एवं उसका क्रियान्वयन कर सकते हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि पंचायतें भारतीय शासन तंत्र की नींव है यदि नींव मजबूत होगी तभी इमारत में मजबूती आएगी। वे चाहते थे कि अधिकारसम्पन्न तथा संसाधनयुक्त पंचायतें देश के शासन तंत्र का आधार बने और इस हेतु उन्होंने प्रयास भी किया।
आर्थिक चिंतन एवं नीतियां
नेहरू जी समाजवाद से प्रभवित होते हुए भी समाजवाद के पारंपरिक अवधारणा से भिन्न अर्थव्यवस्था पर राज्य के पूर्ण नियंत्रण के बजाए मिश्रित अर्थव्यवस्था की बात करते हैं जिसमें सार्वजनिक एवं निजी दोनों की भागीदारी हो।
पंडित जवाहरलाल नेहरू कुछ उद्योगों जैसे- भारी उद्योग, प्रतिरक्षा आदि पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण तथा कुछ उद्योगों में सरकारी नियंत्रण युक्त निजी क्षेत्र के अस्तित्त्व को भी स्वीकारते हैं जिसका लक्ष्य जनकल्याण होना चाहिए। इस प्रकार नेहरू जी निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों के परस्पर सहयोग पर आधारित आर्थिक विकास की बात करते हैं। इस क्रम में उद्योगों के राष्ट्रीयकरण के साथ-साथ नए उद्योगों को भी बढ़ावा दिया गया।
नेहरू के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था धनी और निर्धन के बीच भेद पर बल देती है और यह मानव समानता का निषेध करती है इसलिए नेहरू ने ऐसी संकल्पना प्रस्तुत की जिसमें सभी को अपनी क्षमता के अनुसार काम का अवसर प्राप्त हो। नेहरू नियंत्रित अर्थव्यवस्था द्वारा पूंजीपतियों के पास संपत्ति के केन्द्रण को रोकने के साथ उत्पादन के साधनों, प्राकृतिक संसाधनों पर राज्य का सीधा नियंत्रण चाहते थे।
औद्यगिक नीति
तीव्र आद्योगिकरण की नीति
पंडित जवाहरलाल नेहरू की आर्थिक विचारधारा पर पाश्चात्य दर्शन, पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान, अनुभव, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, रूस की क्रांति, गांधी के विचारधारा का व्यापक प्रभाव था । स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद भारत के समक्ष अनेक समस्याएं थी और नेहरू जी का मानना था कि इन समस्याओं से निपटने हेतु भारत में योजनाबद्ध आर्थिक विकास कार्यक्रम एक सर्वोत्तम मार्ग साबित होगा। इसी के परिप्रेक्ष्य में भारत के आर्थिक विकास के संबंध में नेहरू द्वारा तीव्र आद्योगिकरण की नीति को अपनाया गया। नेहरू जी का मानना था कि देश के विकास हेतु औद्योगिकरण सशक्त माध्यम है और इसके लिए भारी इंजीनियरिंग, मशीन निर्माण उद्योग, वैज्ञनिक अनुसंधान संस्थान तथा ऊर्जा जैसी आवश्यकताओं को पूरा करना होगा।
लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास
नेहरू जी औद्योगिकरण के साथ भारत में लघु एवं कुटीर उद्योगों का भी विकास करना चाहते थे और इस क्रम में उन्होंने ग्रामोद्योग के विकास हेतु अनेक बोर्डों की स्थापना की क्योंकि उनका मानना था कि केवल बड़े उद्योग भारत की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। इस बोर्डों के माध्यम से भारत में बेरोजगारी दूर करना, ग्रामोद्योग को विकसित करने का लक्ष्य रखा गया। इस प्रकार नेहरू ने आर्थिक विकास हेतु मध्य मार्ग अपनाते हुए बड़े उद्योगों के साथ लघु एवं कुटीर उद्योगों को भी महत्व दिया और देश को आर्थिक विकास के मार्ग पर अग्रसर किया।
समाजवाद
नेहरू लोकतांत्रिक माध्यम से समाजवाद को स्थापित करना चाहते थे और उनके समाजवाद संबंधी अवधारण को “लोकतांत्रिक समाजवाद” भी कहा जाता है। नेहरू ने सवियत रूस तथा जापान जैसे देशों में समाजवाद के जिस रूप को देखा उसमें उन्होंने पाया कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में समाजवाद ही बेहतर विकल्प है जो देश को विकास के मार्ग पर ले जा सकता है।
मार्क्स और लेनिन के विचारों से प्रभावित नेहरू का मानना था कि पूंजीवादी व्यवस्था पर आधारित समाज में व्यक्ति की गरिमा एवं समानता को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता । इसी कारण से नेहरू ने समाज के समतावादी मॉडल को स्वीकार किया जिसके माध्यम से सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित की जा सकती है। नेहरू के अनुसार सामाजिक समता हेतु विकास की आवश्यकता होती है न कि किसी क्रांति की और इसी कारण उन्होंने समाजवाद शब्द के स्थान पर “समाज के समतावादी ढांचा” वाक्य का प्रयोग किया।
नेहरू स्वयं को समाजवादी कहलाना पसंद नहीं करते थे क्योंकि वे मानते थे कि किसी वाद से अपने को जोड़ने के बाद व्यक्ति वास्तविक समस्या को भूल कर उसी वाद के नजरिए से उस समस्या को देखता है तथा हल ढूंढने का प्रयास करता है जिससे समस्या का वास्तविक हल नहीं हो पाता। हांलकि इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि नेहरू भारत को समाजवाद के माध्यम से आगे बढ़ाना चाहते थे किन्तु वह सैद्धांतिक समाजवाद के बजाए व्यवहारिक समाजवाद के पक्षधर थे जो भारत की आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुरूप हो।
धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्षता के संबंध में नेहरू के विचार थे कि सभी धर्मों को समान अवसर, समान महत्व एवं पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए। नेहरू जी अपने धर्मनिरपेक्षता संबंधी विचार में राज्य की तटस्थता पर जोर देते हुए किसी धर्म विशेष के साथ राज्य के संबंधों का विरोध करते हैं। इस प्रकार नेहरू धर्मनिरपेक्षता के मामले में पाश्चात्य अवधारण के नजदीक दिखाई देते हैं जहां राज्य का धर्म से पूर्णतः अलगाव होता है। नेहरू जी समान नागरिक संहिता के भी पक्षधर थे ।
राष्ट्रवाद एवं अंतर्राष्ट्रीयतावाद
पंडित जवाहरलाल नेहरू एक राष्ट्रवादी होते हुए भी राष्ट्रवाद पर उन्होंने अपना कोई विशेष विचार नहीं दिया। उन्होंने अपने अनुभव, परम्पराओं आदि के आधार पर राष्ट्रवाद का उल्लेख करते हुए उसके नकारात्मक एवं सकारात्मक पक्षों की चर्चा की। नेहरू के अनुसार सकारात्मक संदर्भ में राष्ट्रवाद ने आरंभ में लोगों में आपसी एकता बढ़ाने में सहयोग दिया किन्तु बाद में नकारात्मक रूप में इससे विभिन्न समुदायों में पारस्परिक घृणा और नफरत की भावना भी बढ़ी।
इसी क्रम में नेहरू ऐसे संकुचित राष्ट्रवाद का विरोध करते थे जो दूसरे देश को नीचा दिखाने में प्रयोग होता है। नेहरू विभिन्न राष्ट्रों के साथ पारस्परिक सहयोग एवं शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की बात करते हैं जो उनके विदेश नीति “पंचशील” में झलकती है।
पंचशील समझौता
यह भारत और चीन के मध्य तिब्बत को लेकर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांत पर आधरित व्यापार और शांति समझौता है जो भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और चीन के पहले प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई के बीच 1954 में सम्पन्न हुआ था।
पंचशील शब्द ऐतिहासिक बौद्ध अभिलेखों से लिया गया है जो कि बौद्ध भिक्षुओं का व्यवहार निर्धारित करने वाले पांच निषेध होते हैं। भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मानते हुए चीन के साथ ‘पंचशील’ सिद्धांत पर समझौता किया।
पंचशील समझौते के मुख्य बिंदु
- दूसरे देश के आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप।
- एक-दूसरे पर आक्रमण न करना।
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन।
- परस्पर सहयोग एवं लाभ के सिद्धांत को बढ़ावा देना।
- अन्य देशों की क्षेत्रीय अखंडता, प्रभुसत्ता का सम्मान ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू एक मानवतावादी व्यक्ति थे और उनका मानवतावादी होना ही उसके अंतर्राष्ट्रीयवादी होने का एक प्रमाण है। इनके अनुसार विश्व का अंतरराष्ट्रीयकरण हो चुका है जहां उत्पादन, वितरण, परिवहन आदि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होते हैं । अतः सभी एक दूसरे पर निर्भर है और इस कारण राष्ट्रों के मध्य सामंजस्य होना चाहिए ।
इस प्रकार नेहरू जी राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीयतावाद के मध्य सामंजस्य की बात करते हैं। उनका कहना था कि विश्व के प्रत्येक राष्ट्र को वैश्विक घटनाक्रम में सक्रिय भागीदारी करनी चाहिए। नेहरू ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत के संघर्ष को वैश्विक संघर्ष के रूप में देखा और कहा कि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन विश्व के अन्य भागों पर प्रभाव डालेगा।
गुटनिरपेक्षता
गुटनिरपेक्षता की अवधारण तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को स्थापित करने में नेहरू का विशेष योगदान माना जाता है। नेहरू को जहां एक ओर संयुक्त राष्ट्र में गहरा विश्वास था वहीं दूसरी ओर दूसरे विश्व युद्ध के बाद होनेवाले ध्रुवीकरण के कटु आलोचक थे। उनका मानना था कि नव स्वतंत्रता प्राप्त राष्ट्रों को इन गुटों में शामिल न होकर स्वतंत्र विदेश नीति अपनाना चाहिए क्योंकि इन नव राष्ट्रों की प्राथमिकता विकास है।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के अनुसार गुटनिरपेक्षता का तात्पर्य निष्क्रियता, तटस्थता या अलगाववाद नहीं था बल्कि उनका मानना था कि अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम में गुटनिरपेक्ष देश की सक्रिय भागीदारी होती है और वह किसी भी घटनाक्रम में स्वतंत्र निर्णय लेने के साथ साथ दोनों गुटों से लाभ प्राप्त कर सकता है। नेहरू ने गुटनिरपेक्षता आधारित विदेश नीति द्वारा भारत के वैदेशिक संबंधों का विस्तार किया और शीतयुद्ध के दौर में तनाव की राजनीति की आलोचना की।
जवाहरलाल नेहरू द्वारा गुटनिरपेक्षता नीति अपनाए जाने के कारण
- नवस्वतंत्र देश भारत के समक्ष विकास की समस्या था तथा इस स्थिति में किसी गुट में शमिल होना उचित नहीं था ।
- नेहरू किसी शक्तिशाली गुट में शामिल होकर भारत के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाना चाहता था।
- ज्यादा से ज्यादा गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के होने से शांति की संभावना को बल मिलेगा।
- भारत की छवि “सर्वे भवन्तु सुखिन” का संदेश देनेवाला तथा शांतिप्रिय देश की रही है। अतः ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत में गुटनिरपेक्षता का आधार मौजूद था।
गांधी बनाम नेहरू की विचारधारा
इसमें कोई संदेह नहीं कि नेहरू के चिंतन पर गांधी के विचारों का गहरा प्रभाव था फिर भी दोनों के विचार कई संदर्भों में अलग-अलग है जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है-
जीवन मूल्य
- पश्चिम की ओर उन्मुख, आधुनिक वैज्ञानिक जीवन दर्शन से प्रभावित नेहरू समाजवाद के समर्थक थे जबकि गांधी जी सादा जीवन, उच्च विचार के समर्थक नैतिकतायुक्त तथा पौर्वात्य मूल्यों से ओत-प्रोत व्यक्ति थे ।
राज्य नियंत्रण
- नेहरू उत्पाद साधनों पर राज्य के नियंत्रण के पक्ष में थे जबकि गांधी जी उत्पादन के साधनों पर राज्य के नियंत्रण के पक्ष में नहीं थे।
औद्योगिकरण
- नेहरू तीव्र औद्योगिकीकरण के द्वारा भारत को विश्व के औद्योगिक मानचित्र पर तेजी से आगे ले जाना चाहते थे जबकि गांधी जी गांधी जी लघु एवं कुटीर उद्योगों पर जोर देते हुए अत्यधिक मशीनीकरण की आलोचना करते हैं।
समाज का स्वरूप
- नेहरू ने समाज के समतावादी ढांचे को अपना आदर्श बनाया जिसमें लोगों के मध्य मौलिक सुविधाओं की समानता थी जबकि गांधी की आदर्श व्यवस्था राम-राज्य है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा सीमित और नियंत्रित होगी। इसमें व्यक्ति अपने अंतःकरण के नैतिक नियमों से नियमित होगा। अतः इसमें राज्य की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी।
सत्य एवं अहिंसा
- नेहरू का मानना था कि घृणा और हिंसा से शांति और विकास अवरोधित होता है। फलतः नेहरू ने पंचशील का सिद्धांत प्रतिपादित किया। गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह को अपनी कार्य पद्धति का आधार बनाया।
न्यासधारिता
- नेहरू न्यासधारिता के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते हैं जबकि गांधी न्यासधरिता सिद्धांत के माध्यम से पूंजीपतियों का हृदय परिवर्तन कर आर्थिक असमानता को दूर करना चाहते हैं।