इजराइल-फिलिस्‍तीन संघर्ष

इजराइल फिलिस्‍तीन संघर्ष

वर्तमान में जारी इजराइल-हमास संघर्ष संघर्ष की शुरुआत 7 अक्टूबर 2023 को होती है जब गाजा पट्टी से हमास द्वारा अचानक इजराइली क्षेत्रों में हज़ारों रॉकेट दागे जाते हैं और उसके बाद अनेक सशस्त्र उग्रवादी इज़राइल की सीमा में घुस सीमा के निकट इज़राइली नागरिकों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाते हुए कई लोगों को बंधक बना लेते हैं।

इजराइल इस हमले की प्रतिक्रिया में इजराइल द्वारा गाजा पर हमला आरंभ कर दिया जाता है जो वर्तमान में भी जारी है। हांलाकि इजरायल द्वारा गाजा पर महीनों से चल रहे हमले को समाप्‍त करने के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय दबाव बढ़ रहा है। इस युद्ध में अब तक 18 हजार से अधिक फिलिस्‍तीनी मारे जा चुके हैं तथा लाखों लोग विस्‍थापित हो चुके हैं।

दिसम्‍बर 2023 में संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा ने गाजा में युद्ध विराम के पक्ष में 153 देशों ने मतदान किया जिसमें भारत भी शामिल है जबकि अमेरिका, इजरायल समेत 10 देशों ने विरोध में मतदान किया।

 

इजराइल का पक्ष

  • एक राज्य के रूप में अपनी यहूदी पहचान और सुरक्षा को बनाए रखना।
  • अधिकृत क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण का विस्तार ।
  • यरुशलम को अविभाजित राजधानी और उसके पवित्र स्थलों तक अपनी पहुँच बनाए रखना । 
  • इजरायल के अस्तित्‍व को फिलिस्तीनी मान्‍यता दें और हिंसा का त्याग करें।

फिलिस्तीन का पक्ष

  • वेस्ट बैंक, गाजा पट्टी और पूर्वी यरुशलम में एक स्वतंत्र एवं संप्रभु राज्य स्थापना करना ।  
  • यरुशलम को अपनी राजधानी बनाने और उसके पवित्र स्थलों तक अपनी पहुँच स्‍थापित करना।
  • इजरायली सैन्य कब्‍जे एवं नाकाबंदी को समाप्‍त कर बस्तियों को खाली कराना ।

इजराइल और हमास का संघर्ष वास्‍तव में भूमि, संप्रभुता और सुरक्षा को लेकर इजराइल और फिलिस्‍तीन के बीच लंबे समय से जारी विवाद का एक भाग है जिसमें दोनों पक्षों के हजारों लोग हताहत हुए है लेकिन अभी तक कोई निष्‍कर्ष सामने नहीं आ पाया है।

इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष का इतिहास

इज़राइल का निर्माण

  • इस संघर्ष की उत्पत्ति 20वीं सदी के आरंभ से होती है जब फिलिस्तीन में यहूदियों के प्रवास में वृद्धि हुई जिससे यहूदी आगंतुकों और अरब आबादी के बीच तनाव उत्पन्न होने लगा।
  • वर्ष 1917 में ब्रिटिश सरकार द्वारा बाल्फोर घोषणा द्वारा फिलिस्तीन में ‘यहूदी लोगों के लिये राष्ट्रीय गृह’ की स्थापना के लिये समर्थन दिया गया तथा वर्ष 1947 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक विभाजन योजना का प्रस्ताव लाया गया जो फिलिस्तीन को दो अलग-अलग यहूदी और अरब राज्यों में विभाजित करता था। इस योजना को यहूदी नेताओं ने तो स्वीकार कर लिया था लेकिन अरब नेताओं ने इसे अस्वीकार कर दिया
  • 1948 में हुए अरब-इज़राइल युद्ध के बाद पवित्र भूमि फिलीस्तीन का विभाजन कर इजराइल बना और इससे पड़ोसी अरब राज्यों के साथ उसका युद्ध शुरू हो गया। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप हज़ारों फिलिस्तीनियों का विस्थापन हुआ जिसने भावी तनाव की नींव रखी।
  • उल्लेखनीय है कि भारत किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता का सम्मान करता है और यही कारण था कि भारत के लिए इसे स्वीकार करना मुश्किल था और इसी कारण भारत का झुकाव फिलीस्तीन के पक्ष में हुआ।
  • वर्ष 1967 में प्रसिद्ध 6 दिवसीय युद्ध में इज़राइली सेना ने गोलन हाइट्स, वेस्ट बैंक तथा पूर्वी येरुशलम को भी अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। इस प्रकार एक बड़े भाग पर इजराइल का अधिकार हो गया।

हमास का उदय

  • इज़राइल-हमास संघर्ष के की शुरुआत 1980 के दशक में होती है जब पहला इंतिफ़ादा (फिलिस्तीनी विद्रोह) भड़क उठा था। इस विद्रोह के समय ही इस्लामी संगठन ‘हमास’ (Hamas) का उदय हुआ जिसने इज़राइली कब्‍जे के प्रतिरोध आंदोलन के रूप में काफी लोकप्रियता हासिल की।
  • 1990 के दशक में ओस्लो समझौते के माध्‍यम से इजराइल फिलीस्‍तीन संघर्ष में कुछ विराम आया लेकिन कुछ वर्षों के बाद शांति प्रक्रिया बाधित हुई और 2000 से 2005 की अवधि में दूसरा फिलीस्‍तीनी विद्रोह हुआ जिसमें हमास ने इज़राइली नागरिकों के विरुद्ध आत्मघाती बमबारी और रॉकेट हमले तेज कर इजराइल से संघर्ष किया।
  • इस प्रकार आनेवाले कई वर्षों तक इज़राइल और हमास के बीच संघर्ष की स्थिति बनी रही और इन संघर्षों से दोनों पक्षों को भारी क्षति उठानी पड़ी है।
  • वर्तमान में जारी संघर्ष से पूर्व वर्ष 2021 में भी हमास ने यरुशलम और अन्य इजरायली शहरों पर रॉकेट दागे जिसके प्रतिक्रिया में इज़राइल ने गाजा पर हवाई हमले किये थे। हांलाकि अमेरिका, मिस्र और अन्य देशों के सहयोग से दोनों पक्षों के बीच युद्धविराम कराया गया जो कुछ समय तक प्रभावी रहा था।

इजराइल और फिलिस्तीन संघर्ष के संदर्भ में विभिन्न देशों के मत अलग अलग हैं फिर भी इस संघर्ष में दुनिया 2 हिस्सों में बंटी दिखती है जहां अमेरिका और यूरोपीयन देश इजराइल के पक्ष में तो अरब देश फिलिस्तीन के पक्ष में खड़े दिखते हैं।  वहीं भारत ने सभी हिंसक गतिविधियों की निंदा करते हुए हिंसा पर रोक लगाने आवश्यकता बतायी।

अमेरिका और इजरायल

  • अमेरिका की मध्य पूर्व संबंधी विदेश नीति की प्रमुख विशेषताओं में से एक है  इजरायल का समर्थन। ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब अमेरिका द्वारा इजरायल को विभिन्न प्रकार से समर्थन देता रहा है जिसके पीछे अनेक रणनीतिक कारण है।
  • मध्य पूर्व में अमेरिकी हितों की पूर्ति करने में अपेक्षाकृत इजराइल एक विश्वसनीय मित्र है।
  • फिलिस्तीन, लेबनान और जॉर्डन में कट्टरपंथी राष्ट्रवादी आन्दोलनों को बढ़ने से इजरायल ने सफलतापूर्वक रोका।
  • इजरायल ने सोवियत संघ,  सीरिया,  ईरान आदि को इस क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित नहीं करने दिया।
  • इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद और अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA के बीच अनेक खुफिया सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।सऊदी अरब अमेरिका से हथियार आयात करने वाले प्रमुख देशों में से एक है। इस प्रकार इजरायल द्वारा युद्धों के माध्यम से अमेरिकी हथियारों के लिए एक मध्य पूर्व में एक बड़ा बाजार उपलब्ध कराया गया है।
  • उन्नत हथियार, लड़ाकू विमान, मिसाइल रोधी रक्षा प्रणाली के विकास, अनुसंधान आदि में दोनों देश सहयोगी है।

यूरोप एवं इजराइल

  • यूरोप के देश नहीं चाहते हैं कि अरब राष्ट्र इतने शक्तिशाली हो जाए की वहां इस्लामिक राष्ट्रवाद का उभार हो जो यूरोपीयन देशों के लिए समस्याएं उत्पन्न करें।
  • इसके अलावा अरब राष्ट्र तेल के भंडार है और सब कुछ ठीक रहा तो हो सकता है ये सभी राष्ट्र मिलकर यूरोपीय देशों को तेल की आपूर्ति बाधित कर सकते हैं जिससे यूरोप की औद्योगिक गति पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • कई यूरोपीयन देश जो हथियारों के निर्यातक है वे अरब हथियारों के निर्यात के लिए एक बड़ा बाजार है। अतः वह चाहते हैं कि उनके हथियारों के बाजार पर कोई प्रभाव न पड़े।

 

इजरायल- फिलीस्‍तीन एवं भारत

1947 में संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना (संकल्‍प–181) का विरोध करनेवाले देशों में भारत भी शामिल था। इस योजना द्वारा फिलिस्तीन को अरब और यहूदी राज्यों में विभाजित करने की मांग थी जिसके बाद से इजरायल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष आरंभ हुआ।

इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर भारत की नीति पहले चार दशकों तक फिलिस्तीन का समर्थन करते हुए इज़राइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंधों से परहेज की थी लेकिन उसके बाद के दशकों में देखा जाए तो इज़रायल के साथ भारत की नीति मैत्रीपूर्ण संबंधों के साथ संतुलन बनाने वाली रही।

भारत एवं इजरायल

भारत प्रारंभ से ही इजराइल से अपने संबधों को मजबूत करने का प्रयास करता रहा है लेकिन देश में व्याप्त असहमति और राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए संबंधों में ज्यादा प्रगति नहीं हो पायी।  भारत एवं इजराइल कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत 1992 से होती है जिसमें 2014 के बाद प्रगति आती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान  भारत ने कई मामलों में इज़रायल का समर्थन किया है जिसे निम्‍न उदाहरणों के साथ समझा जा सकता है।

  • 2015 में UNHRC में इज़राइल के विरुद्ध मतदान से परहेज, संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद में इज़राइल द्वारा पेश किये गए एक निर्णय के पक्ष में मतदान किया।
  • 2017 में भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा दोनों देशों के बजाय केवल इज़रायल का दौरा इत्‍यादि।
  • भारत इज़राइल संबंधों के 25 वर्ष होने पर इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा 2018 में भारत की यात्रा।
  • भारत-इजराइल के बीच शिक्षा, कृषि, जल संरक्षण, हथियार, नवचार, अंतरिक्ष सहयोग, आतंकवाद आदि के क्षेत्र में बढते सहयोग तथा समझौते सम्पन्न होते हैं। भारत की रक्षा प्रौद्योगिकी का एक महत्त्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता इजरायल है और संघर्ष बढ़ने से भारत की रक्षा सामग्री आपूर्ति एवं तैयारियां प्रभावित हो सकती है।
  • जून 2019 में भारत द्वारा  संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद में इज़राइल के प्रस्ताव फिलिस्तीनी गैर-सरकारी संगठन को सलाहकार का दर्जा देने पर आपत्ति के पक्ष में मतदान करते हुए भारत द्वारा समर्थन किया गया।

इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों से प्रतीत होता है कि भारत ने अपने संबंधों में पहले की अपेक्षा इज़राइल को भी महत्‍व देना आरंभ किया है । हांलाकि भारत का कहना है कि उसकी फिलिस्तीन नीति में कोई बदलाव नहीं आया है और यही कारण था कि जब अमेरिका ने यरूशलम को इज़राइल की राजधानी स्वीकार करने संबंधी विवादास्पद प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में रखा तो भारत ने प्रस्ताव का विरोध किया। इसी क्रम मई 2021 में इज़राइल और फ़िलिस्तीन संघर्ष को लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वर्चुअल बैठक हुई तो भारत ने अपनी पूर्व नीति के तहत फ़िलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता दी।

भारत एवं फिलीस्तीन

भारत अपनी संतुलित विदेश नीति का परिचय देते हुए इजराइल तथा फिलीस्तीन के साथ पारम्परिक रिश्तों को महत्ता देता रहा है फिर भी कई मामलों में भारत का झुकाव फिलीस्तीन के ही पक्ष में रहा है जिसके पीछे अनेक कारण हैं।

 

विभिन्न अवसरों पर भारत द्वारा फिलीस्तीन को समर्थन 

  • भारत द्वारा द्विराष्ट सिद्धांत Two state solution का समर्थन।
  • भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलिस्तीन के विभाजन के विरुद्ध मतदान किया गया।
  • 1974  में फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन को भारत द्वारा मान्यता दिया जाना।
  • भारत 1988 में फिलिस्तीन को राज्य का दर्जा देने वाले पहले देशों में से एक है।
  • अमेरिकी द्वारा द्विराष्ट सिद्धांत के प्रस्ताव पर भारत का फिलीस्तीन के पक्ष में स्वतंत्र निर्णय।
  • इजराइल की एक राष्ट्र सिद्धांत को नकारना ।
  • मई 2021 में इज़राइल और फ़िलिस्तीन संघर्ष को लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वर्चुअल बैठक में अपनी पूर्व नीति के तहत फ़िलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता देना।

 

भारत द्वारा फिलीस्तीन को समर्थन दिए जाने का कारण

  • 1948 में हुए अरब-इज़राइल युद्ध के बाद जब फिलीस्तीन का विभाजन कर इजराइल बनाया गया तो भारत के लिए इसे स्वीकार करना मुश्किल था और इसी कारण भारत का झुकाव फिलीस्तीन के पक्ष में हुआ। उल्लेखनीय है किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता का सम्मान भारतीय विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण आधार है।
  • भारत द्वारा यह माना गया कि धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण नहीं होना चाहिए। भारत में जम्मू कश्मीर में मुस्लिमों की संख्या ज्यादा थी। अतः इस प्रकार की मांग यहां भी उठने लगती।
  • भारत कभी भी एक देश द्वारा दूसरे देश की जमीन का अधिग्रहण करने वाले देशों का हिमायती नहीं रहा है।उल्लेखनीय है कि इजराइल ने फिलीस्तीन के कई भागों पर अपना कब्जा जमा कर रखा है यदि भारत भी इजराइल के इस कदम का समर्थन करता है तो यह भारत के विरुद्ध भी हो सकता है क्योंकि कश्मीर की कुछ भाग पर पाकिस्तान का कब्जा तो लद्दाख क्षेत्र में चीन का कब्जा है।
  • ऊर्जा हेतु भारत अरब देशों पर निर्भर है और इजराइल का समर्थन भारत में ऊर्जा संकट को बढ़ा सकता है।
  • युद्ध जारी रहने से इज़राइल एवं अरब देशों के प्रति भारत की संतुलित विदेश नीति प्रभावित हो सकती है। भविष्‍य में यदि अरब देश भी इस संघर्ष में शामिल होते हैं तो भारत की अरब देशों के प्रति राजनयिक चुनौतियाँ बढ़ सकती है।
  • अरब देशों में कई भारतीय प्रवासी कामागर है। अतः अरब देशों से संबंध खराब होने पर प्रवासी भारतीयों के रोजगार, आय पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • यदि अरब देशों के साथ भारत के संबंध खराब होते हैं तो पाकिस्तान इसका लाभ उठा सकता है और भारत के खिलाफ इसका उपयोग कर सकता है जैसे उसने जम्मू कश्मीर के संवैधानिक स्थिति बदले जाने पर OIC में मामला उठाया था।
  • संघर्ष बढ़ने से पश्चिम एशियाई क्षेत्र अस्थिर हो सकता है जिससे भारत को ऊर्जा आयात में बाधा, भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे जैसी महत्‍वपूर्ण पहल पर प्रभाव पड़ने से भारत के लिए आर्थिक चुनौतियाँ पैदा हो सकती हैं।

वर्तमान समय में भारत वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था में एक महत्‍वपूर्ण देश के रूप में आगे बढ़ रहा है और इस स्थिति में बदलते अंतर्राष्‍ट्रीय परिदृश्‍य में पूर्व नीतियों की समीक्षा आवश्‍यक है । इज़रायल व फिलिस्तीन के साथ भारत की डी-हाईफनेशन की नीति को इसी दिशा में एक कदम माना जा सकता है जिसके तहत जहां भारत ने एक ओर फिलिस्तीन के प्रति अपनी ऐतिहासिक नैतिक समर्थक की छवि को बनाए रखने का प्रयास किया तो वही दूसरी ओर इज़राइल के साथ सैन्य, आर्थिक एवं अन्य रणनीतिक संबंधों में संलग्न बने रहने का प्रयास किया है। 

इस प्रकार भारत ने पूर्व की नीति से हटकर और दोनों प्रतिद्वंद्वियों देशों के प्रति एक स्वतंत्र नीति का समर्थन करते हुए भारत ने विदेश नीति डी-हाईफनेशन नीति को महत्‍व दिया। इस नीति का तात्‍पर्य है कि भारत इज़रायल और फिलिस्तीन के साथ अपने संबंधों को स्‍थापित करने में राष्‍ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए अलग-अलग संबंध स्‍थापित करेगा।

भारत ने ‘लिंक वेस्ट पॉलिसी’ के एक हिस्से के रूप में इसी नीति को महत्‍व दिया जब भारत ने वर्ष 2018 में इज़राइल और फिलिस्तीन के साथ अपने संबंधों को अलग अलग देखने का दृष्टिकोण अपनाया ताकि दोनों देशों से परस्पर स्वतंत्र और विशिष्ट संबंध विकसित कर सके। जब अरब देश धीरे धीरे इजराइल के साथ संबंधों को सामान्य कर रहे हैं एब्राहम अकार्ड इसी का उदाहरण है। ऐसी स्थिति में भारत को भी अपनी नीतियों में संतुलन स्थापित करना उचित है।

 

इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष का समाधान

द्विराष्‍ट्र सिद्धांत

  • इजरायल फिलिस्‍तीन संघर्ष में Two-State Solution योजना भारत,अमेरिका, चीन सहित कई प्रमुख देशों द्वारा समर्थित प्रस्तावों में से एक है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सीमाओं के अंदर इज़राइल के साथ ही एक स्वतंत्र एवं संप्रभु फिलिस्तीनी राज्य के निर्माण की परिकल्पना करता है।
  • इसी क्रम में यह संघर्ष के मुख्य मुद्दों जैसे यरूशलेम, शरणार्थी, बसावट, सुरक्षा और जल बँटवारा आदि को भी संबोधित करने में सक्षम है। हालाँकि टू स्टेट सॉल्यूशन के समक्ष इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच (और उनके घरेलू जनमत के बीच) राजनीतिक इच्छाशक्ति एवं भरोसे की कमी, फतह एवं हमास के बीच फिलिस्तीनी नेतृत्व और क्षेत्र का विभाजन, ईरान, तुर्की, मिस्र और अमेरिका जैसे बाहरी तत्वों का प्रभाव एवं हस्तक्षेप जैसे चुनौतियां भी है।
  • शांति समाधान की दिशा में भारत ने ‘टू स्टेट सॉल्यूशन’ को स्वीकारते हुए दोनों पक्षों को वार्ताओं के माध्यम से आगे बढ़ने पर सहमति दी है।

एक लंबे समय के बीत जाने के बाद भी दानों पक्षों में सुलह न होने का एक प्रमुख कारण दोनों ओर से जारी हिंसा और अतिवाद है जो लोगों के बीच नफरत और असंतोष को बढ़ाने के साथ साथ संवाद एवं सह-अस्तित्व की संभावनाओं को समाप्‍त कर देती है।

अत: आवश्‍यकता इस बात की है कि अन्‍य संभावित सुहल मॉडल जैसे इज़राइलियों और फिलिस्तीनियों दोनों को समान अधिकार एवं प्रतिनिधित्व वाला वन स्‍टेट साल्‍यूशन,  सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और संसाधनों जैसे क्षेत्रों में साझेदारी एवं सहयोग आधारित परिसंघीय मॉडल आदि के साथ साथ दोनों समुदायों की चिंताओं को दूर करने हेतु संवाद की संभावनाओं को प्रोत्‍साहित किया जाए जिसका समर्थन भारत भी करता है।  

 

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