एक राष्ट्र, एक चुनाव
गठबंधन सरकार वर्तमान भारतीय राजनीति की विशेषता बन गयी है। गठबंधन की विघटनकारी शक्तियों तथा राजनीतिक स्थिरता की कमी से जहां लोकसभा एवं राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव तिथि अलग अलग होती है वहीं आए दिन चुनावों की संभावना बनती रहती है। इसी को देखते हुए सरकार प्रयासरत है कि भारत में होनेवाले लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावों को एक साथ किया जाए जिसके लिए सितम्बर 2023 में केन्द्र द्वारा एक राष्ट्र, एक चुनाव की व्यवहार्यता पर अध्ययन हेतु भारत के पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।
एक राष्ट्र एक चुनाव का अर्थ
एक राष्ट्र एक चुनाव का तात्पर्य अलग-अलग एवं निरंतर चुनावों के स्थान पर लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद 1967 तक देखा जाए तो यह व्यवस्था स्वत: लागू थी लेकिन कालांतर में कुछ विधानसभाओं के समय पूर्व भंग होने और 1970 में लोकसभा को समय पूर्व भंग किए जाने से यह एक साथ चुनावों का क्रम भंग हो गया । पिछले कुछ वर्षों से सरकार प्रयासरत है कि भारत में पुन: एक राष्ट्र, एक चुनाव को लागू किया जाए जिसके पक्ष में अनेक तर्क दिए जाते हैं।
विभिन्न समितियों की सिफारिश
- 1983 में चुनाव आयोग की रिपोर्ट, 1999 में 170वें विधि आयोग तथा 2015 में संसद की एक स्थायी समिति ने पूरे देश में एक साथ चुनाव की सिफारिश की थी।
- 2018 में विधि आयोग ने एक साथ चुनावों पर जारी मसौदा रिपोर्ट में भी इसके पक्ष में सिफारिश दिया।
वित्तीय बोझ में कमी
- क्रमिक चुनाव राज्य के वित्तीय बोझ को बढ़ाता है तथा एक राष्ट्र, एक चुनाव व्यवस्था से चुनाव आयोग द्वारा राजनीति प्रक्रिया पर होनेवाले खर्च में कमी आएगी जिससे सार्वजनिक धन की बचत की जा सकती है।
प्रशासनिक दक्षता
- चुनाव के समय संपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने पर केन्द्रित होती है तथा क्रमिक रूप से जारी चुनाव प्रक्रिया के बजाए एक साथ चुनाव होने से प्रशासनिक कार्य क्षमता में वृद्धि होगी तथा सुरक्षा बलों पर पड़ने वाले तनाव को कम किया जा सकेगा ।
मतदान प्रतिशत में वृद्धि
यह व्यवस्था मतदान प्रतिशत में वृद्धि लाएगी क्योंकि एक साथ चुनाव होने से लागों को एक समय में कई वोट डालने में आसानी होगी।
आदर्श आचार संहिता काल में कमी
- चुनाव के दौरान बार बार आदर्श आचार संहिता लागू होने से नीतिगत एवं विकास कार्य बाधित होते हैं। यदि एक साथ चुनाव कराए जाते है तो सरकारी नीतियों एवं विकास गतिविधियों का समय पर कार्यान्वयन होगा।
इस प्रकार एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में अनेक तर्क दिए जाते हैं लेकिन भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में इसको व्यवहार में लाने में अनेक चुनौतियां भी है जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है।
व्यवहार्यता संबंधी चुनौतियां
एक राष्ट्र, एक चुनाव लागू करने के लिए भारतीय संविधान एवं कानूनी ढांचे में निम्न बदलाव करना होगा
- अनुच्छेद 83- संसद के सदनों की अवधि के संबंध में
- अनुच्छेद 85 राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा भंग करने के संबंध में
- अनुच्छेद 172 राज्य विधानमंडलों के सदनों की अवधि के संबंध में
- अनुच्छेद 174 राज्य विधानमंडलों के विघटन के संबंध में
- अनुच्छेद 356 राज्यों में राष्ट्रपति शासन के संबंध में
- संविधान तथा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन
एक राष्ट्र, एक चुनाव लागू करने के लिए उपरोक्त प्रावधानों में बदलाव करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है
- अधिकांश प्रावधान संघात्मक प्रकृति के है और इसमें संशोधन हेतु 50% राज्यों के समर्थन की आवश्यकता होगी जो एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
- इसी क्रम में केंद्र या राज्य में समय पूर्व सरकार गिरने की स्थिति में इस योजना की व्यवहार्यता का आकलन महत्वपूर्ण पक्ष है।
- वर्तमान में विभिन्न राज्य सरकारों का कार्यकाल अलग अलग समय पर समाप्त होता है। अत: इनके कार्यकाल को लोकसभा के साथ समन्वित करने के लिए जहां कुछ राज्यों को अपने सदन के कार्यकाल में वृद्धि करनी होगी वहीं कुछ को कमी करनी होगी जिसके लिए केन्द्र द्वारा सभी राज्यों को सहमत कराना एक कठिन चुनौती होगी।
- इस प्रकार के बड़े बदलाव भविष्य में किसी प्रकार के संवैधानिक संशोधनों के लिये एक चिंताजनक स्थिति उत्पन्न न करें इसे भी देखना होगा ।
लॉजिस्टिक चुनौतियां
- एक राष्ट्र, एक चुनाव व्यवस्था के कार्यान्वयन हेतु लगभग 30 लाख EVM एवं VVPAT की आवश्यकता होगी इसी क्रम में संपूर्ण देश में केन्द्रीय सुरक्षा बलों को तैनात करना एक प्रमुख चुनौती होगी।
लागत चुनौतियां
- चुनाव आयोग के अनुसार एक साथ चुनाव कराने पर EVM और VVPAT की खरीद, भंडारण, प्रत्येक 15 वर्षों के बाद मशीनों को बदलने आदि में पर्याप्त बजट की आवश्यकता होगी ।
मतदाता व्यवहार
- एक राष्ट्र, एक चुनाव मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है क्योंकि मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों के अनुसार मतदान करेंगे जिससे बड़े दल केन्द्र एवं राज्य दोनों चुनावों में जीत हासिल कर सकते हैं और क्षेत्रीय दल को नुकसान हो सकता है।
वर्तमान चुनावी व्यवस्था के पक्ष में तर्क
- वर्तमान चुनावी व्यवस्था संघवाद के अनुरूप है क्योंकि एक राष्ट्र, एक चुनाव में संपूर्ण राष्ट्र “एक” माना जाता है जो अनुच्छेद 1 द्वाराभारत को “राज्यों के संघ” के रूप में वर्णित विचार का खंडन करता है।
- राष्ट्रीय एवं राज्यों के मुद्दे अलग होने के कारण वर्तमान व्यवस्था इन मुद्दों को अलग-अलग हल करने में सहायक है।
- बार बार होनेवाले चुनाव के वर्तमान स्वरूप में लोकतंत्र अधिक लाभकारी है क्योंकि यह राजनेताओं की जवाबदेही बढ़ता है तथा मतदाताओं की आवाज सुनने के ज्यादा अवसर देता है।
- भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस प्रकार के बड़े बदलाव भविष्य में किसी प्रकार के संवैधानिक संशोधनों के लिये एक चिंताजनक स्थिति उत्पन्न कर सकता है।
आगे की राह
- केन्द्रीकरण एवं संघवाद के बीच संतुलन बनाते हुए ढांचा तैयार किया जाए जिसमें संघीय सिद्धांतों के साथ साथ राष्ट्रीय चुनावी मुद्दों को समान महत्व दिया जाए।
- ऐसे मॉडल पर विचार किया जाए जिसके आधार पर देश की राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार कुछ राज्यों में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ संबंधी प्रक्रिया का पालन किया जाए, तो वहीं अन्य राज्यों के लिए क्रमबद्ध चुनावी प्रक्रिया को बरकरार रखा जाए।
- ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से संबंधित लागतों एवं बचत का स्वतंत्र एवं पारदर्शी रूप में मूल्यांकन किया जाए उसके बाद इसको लागू करने पर विचार किया जाए ।
- ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के विचार को संपूर्ण देश में लागू करने से पूर्व कुछ राज्यों में पायलट आधार पर लागू कर प्राप्त परिणामों के आधार पर संपूर्ण देश में विस्तारित किए जाने पर विचार किया जाए।
निष्कर्ष
- भारत में यदि एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू होती है तो यह लोकतंत्र एक अनूठा उदाहरण स्थापित होगा क्योंकि बेल्जियम, स्वीडन और दक्षिण अफ्रीका के बाद भारत विश्व का चौथा देश होगा जहां एक राष्ट्र, एक चुनाव’ व्यवस्था लागू होगी।
- ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का मुद्दा संविधान के संघीय ढाँचे से संबंधित है इसलिए सभी दलों की चिंताओं को दूर करते हुए इसे देश में लागू किया जाना बेहतर होगा।
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